नई दिल्ली। उसे दास्तान कहने के अपने हुनर में इस कदर महारत हासिल थी कि वह अपने अल्फाज और अंदाज से सामने बैठे लोगों को बांध लेता था। दास्तांगोई को एक अलग ही मुकाम पर पहुंचाने वाले अंकित चड्ढा शुक्रवार को खुद एक दास्तां हो गए। महज 30 बरस की उम्र में वे दुनिया को अलविदा कह गए।
13वीं सदी की उर्दू कहानी कहने की कला दास्तांगोई को नया जीवन देने में 2011 से जुटे युवा दास्तांगो अंकित चड्ढा की मात्र 30 वर्ष की आयु में मौत हो गई। दिल्ली के लोधी रोड स्थित विद्युत शवदाहगृह में शुक्रवार को उनका अंतिम संस्कार किया गया। अंकित की मौत बुधवार शाम पुणे के पास उकसान झील में डूबने से हुई।
उनके करीबी पारिवारिक संबंधी ने कहा कि वह पुणे अपनी एक प्रस्तुति देने गया था, जहां पास में ही एक झील में घूमने के दौरान उसका पैर फिसल गया। झील में डूबने से उसकी मौत हो गई। उन्होंने कहा कि डूबने के कई घंटे बाद उसके शव को बाहर निकाला जा सका। चड्ढा का कार्यक्रम दास्तां 'ढाई आखर की' 12 मई को पुणे के ज्ञान अदब केंद्र पर होना था।
एक पुराने साक्षात्कार में चड्ढा ने कहा था कि कबीर की वाणी पर आधारित इस दास्तां को तैयार करने में उनका 7 साल से अधिक वक्त गुजरा था। इस दास्तां में चड्ढा ने मौजूदा समय के मोबाइल, यूट्यूब इत्यादि तकनीकी पहलुओं के साथ-साथ कबीर के प्रेम संवाद की कहानी को आपस में जोड़ने का काम किया था। दोहे और आम जिंदगी के बहुत से किस्से पिरोकर यह दास्तां तैयार की गई थी।
मध्यमवर्गीय पंजाबी परिवार में जन्मे चड्ढा की दास्तांगोई में कबीर के अलावा दाराशिकोह, अमीर खुसरो और रहीम का जिक्र तो था ही, लेकिन महात्मा गांधी के जीवन को लेकर उनकी बुनी कहानी को देश-विदेश में पसंद किया गया।
चड्ढा ने अपनी पहली प्रस्तुति 2011 में दी थी और 2012-13 के दौरान उन्होंने अकेले प्रस्तुति देना शुरू कर दिया था। पुणे की प्रस्तुति से पहले वे हाल ही में कबीर और गांधी की दास्तां पर सिएटल और कैलिफोर्निया में अपनी प्रस्तुति देकर लौटे थे।
चड्ढा के गुरु महमूद फारुकी ने चड्ढा की मौत को एक अपूरणीय क्षति बताया। लेखक और निर्देशक फारुकी ने कहा कि वह एक चमकता सितारा था और दास्तांगोई का वह अपना ही एक तरीका विकसित कर रहा था। उसने वास्तव में इस विधा में कई नए प्रयोग जोड़े थे। वह अपने सामने बैठे लोगों को अपने से जोड़ लेता था और यह काम कोई साफ दिल इंसान ही कर सकता है।
उन्होंने कहा कि वह फारसी और उर्दू सीख रहा था और अपने काम को लगातार बेहतर कर रहा था। चड्ढा ने आम लोगों की तरह ही स्नातक के बाद नौकरी शुरू की लेकिन फिर उर्दू की इस विधा की तरफ उसका रुझान हुआ और उसके बाद उसने नौकरी छोड़ इस राह को पकड़ लिया। जश्न-ए-रेख्ता और महिन्द्रा कबीर उत्सव जैसे कार्यक्रमों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके चड्ढा ने हॉर्वर्ड, येल और टोरंटो जैसे विश्वविद्यालयों में भी अपनी प्रस्तुतियां दी थीं। (भाषा)