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केजरीवाल की बड़ी हार, सरकार को खतरा नहीं...

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हमें फॉलो करें Arind Kejriwal
, बुधवार, 15 जून 2016 (11:17 IST)
राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति लिए अपने विधायकों को संसदीय सचिव बनाने को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के पास कोई वैध, नैतिक तर्क नहीं है। वे नैतिक, संवैधानिक और वैधानिक रूप से गलत हैं कि उन्होंने अपने 21 विधायकों को ही संसदीय सचिव की नियुक्ति को उचित ठहराने की कोशिश की है। वास्तव में, केजरीवाल ही ऐसे अकेले मुख्यमंत्री नहीं हैं जिन्होंने अपने विधायकों को उपकृत करने के लिए धूर्तता का सहारा लिया।
 
उन्हें नैतिकता पर शिक्षा देने वाले सभी दलों के नेता भी कभी-कभी इस तरह की अवैधानिक, औचित्यहीन, पाखंड का सहारा लेते रहे हैं। देश के लगभग प्रत्येक राज्य में कानून को दरकिनार रखते हुए मुख्यमंत्रियों द्वारा संसदीय सचिवों की नियुक्ति करने की एक लंबी सूची और परम्परा रही है। सभी राजनीतिक दलों की राज्य सरकारों द्वारा स्थापित उदाहरणों का पालन करने में केजरीवाल राजनीतिक रूप से सही हो सकते हैं लेकिन उन्हें अपने संसदीय सचिव चुनने से पहले बिल (विधेयक) में तकनीकी आधार पर संविधान सम्मत संशोधन कर लेना चाहिए था तो यह नौबत न आती। 
 
लेकिन इस मामले में किसी तकनीकी खामी के आधार पर राष्ट्रपति ने कोई फैसला लिया है तो उन पर सवाल खड़े करने के लिए केजरीवाल सरकार हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं। लेकिन इसके लिए वे केन्द्र सरकार और गृह मंत्रालय को दोषी ठहरा रहे हैं। उनका कहना है कि यह प्रधानमंत्री का फैसला है क्योंकि राष्ट्रपति के नाम पर सारी कार्रवाई तो गृह मंत्रालय द्वारा की गई है। उनका यह भी कहना है कि गुजरात, हरियाणा, राजस्थान, नगालैंड, पंजाब और अन्य राज्यों में भी संसदीय सचिव हैं लेकिन केवल दिल्ली के संसदीय सचिवों को अयोग्य क्यों ठहराया जा रहा है? 
 
केजरीवाल सरकार पर देर सवेर 21 विधायकों की सदस्यता जाने का खतरा पैदा हो गया है। दिल्ली सरकार ने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाने का विधेयक पास किया जबकि वे अधिक से अधिक सात की नियुक्ति कर सकते थे। विधानसभा से पारित करने के बाद जब यह बिल उन्होंने राष्ट्रपति के पास भेजा तो राष्ट्रपति ने इस पर अपनी आपत्तियां दर्ज कराते हुए विधेयक उप राज्यपाल को वापस भेज दिया। इसके बाद यह सारा मामला चुनाव आयोग के पास पहुंच गया है।  
 
चुनाव आयोग इन विधायकों से पूछेगा कि चूंकि वे लाभ के दो पदों पर हैं तो क्यों न उनकी सदस्यता रद्द कर दी जाए?  दिल्ली के ही एक पूर्व चीफ सेक्रेटरी उमेश सहगल का कहना है कि दिल्ली में संसदीय सचिव नियुक्त करना का कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है, इसलिए ऐसा करना गलत है। इस बीच एक याचिकाकर्ता ने राष्ट्रपति के सम्मुख याचिका दाखिल करते हुए कहा कि संविधान में संसदीय सचिव को नियुक्त करने का प्रावधान ही नहीं है, फिर दिल्ली सरकार ने ऐसा विधेयक अपने आप कैसे पास कर लिया और इसको स्वीकृति दिलाने के लिएक क्यों राष्ट्रपति के पास भेज दिया।
 
इस याचिका के बाद राष्ट्रपति ने चुनाव आयोग से जवाब मांगा। इस पर चुनाव आयोग ने याचिका- कर्ता से इस पर जवाब मांगा जिस पर करीब 100 पेज का जवाब दाखिल कराया गया। लेकिन इसके बाद दिल्ली सरकार ने संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद (ऑफिस ऑफ प्रॉफिट) से अलग करने का विधेयक पारित किया। दिल्ली सरकार ने इस विधेयक के बाद भी पिछली तारीख से एक कानून बनाया जोकि पूरी तरह से गलत है। अब दिल्ली सरकार राष्ट्रपति के फैसले को चुनौती देने की स्थिति में भी नहीं है।            
 
चुनाव आयोग से नोटिस मिलने के बाद आप विधायकों ने चुनाव आयोग के न्याय क्षेत्र को चुनौती दी और कहा कि जीएनसीटी एक्ट 1991 की धारा 15 के तहत उन्हें अयोग्य ठहराने की याचिका पर राष्ट्रपति को सलाह देने का कोई न्यायिक अधिकार नहीं बनता। लेकिन याचिकाकर्ता ने चुनाव आयोग को दिए अपने जवाब में कहा कि अगर संविधान के अनुच्छेद 102 और 192 को एटीसी एक्ट की धारा 15 के साथ देखें तो साफ हो जाता है कि चुनाव आयोग को राष्ट्रपति को सलाह देने का न्यायिक अधिकार हासिल है।  
 
राष्ट्रपति ने दिल्ली के उपराज्यपाल को लाभ का पद संशोधन विधेयक भले लौटा दिया हो, लेकिन चुनाव आयोग में सुनवाई की प्रक्रिया जारी रहेगी। आयोग ने अब जवाब दाखिल करने और सुनवाई की प्रक्रिया को जल्द से जल्द तय करना है। इस मामले में अगली, निर्णायक कार्रवाई चुनाव आयोग की रिपोर्ट के आधार पर ही होगी। 
 
इस बीच संसदीय सचिव बनाए गए विधायकों ने आयोग को अपने जवाब में कहा कि वे 'लाभ के पद' पर नहीं हैं। उनका दावा है कि वे सरकार से वेतन-भत्ते या गाड़ी की सुविधाएं नहीं लेते हैं। लिहाजा उनके लिए संसदीय सचिव का पद लाभ का पद नहीं है। पर आयोग के सूत्रों का कहना है कि अब 21 विधायकों को सुनवाई के लिए आयोग मुख्यालय में बुलाया जाएगा। 
 
जब यह सुनवाई पूरी हो जाएगी तो आयोग राष्ट्रपति के पास अपनी रिपोर्ट भेजेगा। आयोग को यह भी तय करना है कि वह सभी 21 विधायकों को बुलाकर एक साथ ही सुनवाई करे या फिर अलग-अलग बुलाकर व्यक्तिगत तौर पर उनकी राय मांगी जाए। सुनवाई के बाद तमाम तथ्यों को ध्यान में रखकर आयोग अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को भेजेगा। जाहिर है कि इसमें आयोग आगे की कार्रवाई की सिफारिश भी करेगा।
 
कानूनी विशेषज्ञों की मानें तो संसदीय सचिव बनाए गए 21 विधायकों की सदस्यता जाना तय है, लेकिन अंतिम निर्णय आयोग की राय से ही होगा। प्रख्यात संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप का मानना है कि राष्ट्रपति की ओर से 21 संसदीय सचिवों को कानूनी मान्यता प्रदान करने के संबंध में दिल्ली सरकार के बिल को खारिज या वापस करने की स्थिति में उक्त सभी विधायक अयोग्य हो गए हैं। यह जरूरी है कि इस मामले में चुनाव आयोग की राय ली जाए।
 
कश्यप का मानना है कि बिल पास कर सरकार ने मान लिया है कि संसदीय सचिव का पद लाभ  का पद है। उनका कहना है कि सरकार को इस पद पर नियुक्ति से पहले कानून बनाना चाहिए और फिर किसी को नियुक्त करना चाहिए। इसके लिए पूरी प्रक्रिया का पालन करना था। 
 
अब विधायकों को अयोग्य ठहराने के बाद छह माह में उपचुनाव जरूरी है। लेकिन इस मामले को लेकर सरकार अदालत का दरवाजा खटखटा सकती है। लेकिन संविधान के तहत न किए गए कार्य पर राहत मिलने की उम्मीद कम ही है। अदालत यह देखेगी कि संविधान का अनुपालन हुआ है या नहीं। राष्ट्रपति के निर्णय के बाद गेंद आयोग के पाले में आ गई है। अब यदि आयोग ने इन विधायकों को अयोग्य ठहरा दिया तो फिर उपचुनाव तय है।
 
इस नए परिवर्तन से सरकार पर क्या असर पड़ेगा?
 
1. राष्ट्रपति द्वारा बिल को नामंजूर किए जाने को आम आदमी पार्टी के 21 विधायकों की सदस्यता रद्द होना माना जा रहा है।
 
2. मामला चुनाव आयोग के पास है। आयोग की सलाह मिलने पर राष्ट्रपति धारा 192 के तहत विधायकों की सदस्यता रद्द करने की घोषणा कर सकते हैं।
 
3. दिल्ली इस अधिनियम को कुछ सुधारों के साथ दोबारा विधानसभा में पेश कर सकती है।  
 
4. अगर 21 विधायकों की सदस्यता रद्द होती है तो भी अरविंद केजरीवाल सरकार को कोई खतरा नहीं है। दिल्ली की 70 सदस्यीय विधानसभा में आप के पास 67 विधायक हैं। 21 विधायकों के अयोग्य हो जाने के बाद भी आप के पास 46 सीटों होंगी जोकि बहुमत के आंकड़े (35+1) से बहुत ज्यादा हैं।  
 
5. दिल्ली में केजरीवाल सरकार अपना काम करते रह सकती है क्योंकि उसे बहुमत प्राप्त है। चुनाव आयोग अयोग्य घोषित विधायकों के चुनाव क्षेत्रों में उप चुनाव करवा सकती है। ऐसी स्थिति में आप पर जहां अपनी 21 सीटें जीतने का दबाव होगा तो भाजपा (3) और कांग्रेस (0) और बसपा को सीट जीतने का मौका मिल सकता है।
 
6. यह मामला कोर्ट में भी पहुंचेगा और लम्बी कानूनी प्रक्रिया के बाद कुछ ऐसा निकलकर आएगा जोकि जनता के हित में होगा, कहा नहीं जा सकता। इसलिए निकट भविष्य में कानूनी रस्साकशी और उप चुनाव की तैयारियां साथ-साथ चलने की संभावना है।   

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