Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

निर्भया कांड : डॉक्यूमेंट्री से कितनी बदलेगी दुनिया?

हमें फॉलो करें निर्भया कांड : डॉक्यूमेंट्री से कितनी बदलेगी दुनिया?
बहस क्या सिर्फ यही है कि इस डॉक्यूमेंट्री को बीबीसी ने क्यों दिखाया या कुछ और भी। क्या इसका मकसद विशुद्ध तौर से अपराधी की मानसिकता को दिखाना ही था और ऐसा करके क्या वाकई किसी भी अपराधी की मानसिकता बदली जा सकी है। बौद्धिक और आध्यात्मिक माने जाने वाले इस देश में हर एक मिनट में तीन महिलाएं किसी न किसी तरह के अपराध की शिकार होती हैं। क्या हम उन अपराधियों की सोच को बदल पाए।
 
जी, यह मामला सोच से कहीं बड़ा है। सोच की चिंता बहुत हो चुकी। अब या तो इस देश के कानून को लेकर चिंता कीजिए या फिर हमें महिला दिवस के इस महा ड्रामे का अंतिम संस्कार करने की इजाजत दे दीजिए। काश, कोई यह भी सोचता कि इस देश में जो पीड़ित जिंदा हैं, उन्हें किसी अपराधी को ऐसा हीरो बनाए देने पर कैसा लग रहा होगा, लेकिन इस देश में पीड़ित से ज्यादा तो अपराधी के अधिकारों और उसकी अभिव्यक्ति की आजादी की चिंता की जाती है। जय हो। -वर्तिका नंदा
 
वरिष्ठ साहित्यकार क्षमा शर्मा कहती हैं डॉक्यूमेंट्री का प्रसारण एक अपराधी को हीरो बनाने की कोशिश है। वस्तुत: यह चिन्हों का जमाना है और लोग चिन्ह देखते हैं और वैसा ही बनने की कोशिश करते हैं। हम देखते हैं कि निर्भया कांड के बाद इस तरह की घटनाओं की बाढ़ जैसी आ गई थी। रिपोर्टिंग भी बढ़ गई थी। अपराधी शर्मिंदा नहीं है।
webdunia
जो लड़की आज जिंदा नहीं है, इन बातों का जवाब नहीं दे पाएगी, उसके लिए वह बदमाश और धूर्त बताएगा कि उस लड़की को रात में नहीं निकलना चाहिए। या फिर इस घटना के लिए वह खुद ही जिम्मेदार थी। बहुत ही शर्मनाक है। डाक्यूमेंट्री के समर्थन में तर्क दिए जा रहे हैं कि इससे माइंडसेट पता चलता है, तो इस देश के लोग वेबकूफ नहीं हैं। उन्हें पश्चिमी देशों से सीखने की जरूरत नहीं है। ज्यादा अच्छा होता कि डॉक्यूमेंट्री 'रेप क्यों होते हैं, इस बुराई को किस तरह ठीक किया सकता है' पर बनाई जाती। लेज़्ली उडविन क्यों नहीं पश्चिमी देशों की लड़कियों पर डॉक्यूमेंट्री बनाती हैं, जो मर चुकी हैं। कल को तो आईएसआईएस के सिर काटते हुए वीडियो भी इस तर्क के साथ प्रसारित किए जाएंगे कि इससे माइंड सेट का पता चलता है। इस डॉक्यूमेंट्री के पैरोकारों को आड़े लेते हुए क्षमा शर्मा कहती हैं कि यह बहुत ही अपमानजनक है। इस तरह की चीजों को बिलकुल भी इजाजत नहीं मिलनी चाहिए। 
 
webdunia
टीवी पत्रकार प्रियदर्शन कहते हैं कि 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में हुए गैंग रेप ने पूरे देश में एक बड़ी बहस पैदा की थी। पहली बार शील और शर्म को बलात्कार से जोड़कर न देखने का आग्रह इतना तीखा हुआ। अगर उस पर बनी एक फिल्म इस बहस को आगे बढ़ाती है तो हमें उसका स्वागत करना चाहिए। ये फिल्म समाज में कुछ बदलाव लाएगी या नहीं, यह इस पर निर्भर करेगा कि फिल्म अपना कितना असर छोड़ती है, लेकिन फिल्म पर पाबंदी बेशक, समाज को पीछे ले जाएगी। क्योंकि एक लोकतंत्र में सभी आवाज़ों को सुना जाना चाहिए- उन आवाज़ों को और ज़्यादा जिनका वास्ता स्त्री-अस्मिता से जुड़े सवालों से है। 
 
टीवी पत्रकार ऋचा अनिरुद्ध मानती हैं कि इस तरह के घटिया विचारों को बिलकुल भी प्रमोट करने की जरूरत नहीं है।
webdunia
जैसा कि कहा जा रहा है कि रिसर्च के लिए मुकेश से चर्चा की अनुमति दी गई थी ताकि एक हत्यारे और बलात्कारी की सोच को समझा सके, समझा जा सकता है। लेकिन, डॉक्यूमेंट्री का प्रसारण कर एक अपराधी के विचारों का महिमामंडन नहीं होना चाहिए। क्योंकि जिस तरह अपराधी ने कहा है कि निर्भया को रात में घर से नहीं निकलना चाहिए था, इस तरह के विचार हमें हमारे समाज में, यहां तक कि महिलाओं से भी सुनने को मिल जाते हैं। नेता और पढ़े-लिखे लोग भी आए दिन इस तरह की बयानबाजी करते रहते हैं। मुझे नहीं लगता कि इस तरह की डॉक्यूमेंट्री का प्रसारण होना चाहिए। आश्चर्य तो इस बात का है कि डाक्यूमेंट्री बनाने के दौरान इस पूरी प्रोसेस का किसी को पता तक नहीं चला। क्या इसके माध्यम से हम पूरी दुनिया को यह बताना चाहते हैं कि देश में महिलाओं को लेकर हमारी सोच क्या है?
 
वाणी प्रकाशन के
webdunia
प्रबंध निदेशक अरुण माहेश्वरी का मानना है कि इस डॉक्यूमेंट्री से भारतीयों के प्रति जो ब्रिटिश लोगों को नजरिया है, उसी का पता चलता है। लेकिन, इस बात में कोई दो राय नहीं कि इसे समाज के सामने जरूर लाना चाहिए। संसद में भी इस मुद्दे पर बहुत चर्चा हुई और हंगामा भी हुआ। मगर समाज के सामने यह जरूर आना चाहिए कि एक बलात्कारी की सोच क्या है। एक रेपिस्ट कहता है कि लड़कियों को रात 9 बजे के बाद घर से नहीं निकलना चाहिए तो क्यों नहीं लड़कों को ही घरों में बंद कर दिया जाए। रेप के बीज को ही बंद कर दिया जाए। लड़कियां क्यों नहीं खुलेआम घूमें? यह समाज की बहुत बड़ी त्रासदी है। हम महिला दिवस के मौके पर इस बात पर विचार कर रहे हैं कि डॉक्यूमेंट्री दिखाएं या न दिखाएं। मगर इस पर प्रतिबंध लगा देंगे तो यह कैसे पता चलेगा कि एक बलात्कारी का चेहरा कितना घिनौना है। हालांकि कुछ ऐसे भी बिन्दु हैं, जिन पर सोचने की जरूरत है। जैसे- किसकी अनुमति से शूटिंग हुई, कानून का कैसे उल्लंघन हुआ इत्यादि। इन सैद्धांतिक सवालों पर सवाल उठाए जा सकते हैं, क्योंकि शूटिंग का ज्यादातर हिस्सा जेल का है। 
 
webdunia
दूरदर्शन नेशनल की चैनल एडवाइजर तनुजा शंकर का इस मामले में कहना है कि यदि एडिटोरियल व्यू से देखा जाए तो हर किसी को डॉक्यूमेंट्री प्रसारित करने का अधिकार है। लेकिन, कानूनी और मानवीय पक्ष से देखा जाए तो यह पूरी तरह अनुचित है क्योंकि जिस इंसान को मौत की सजा सुना दी गई हो उसका बयान लेने का कोई फायदा नहीं है। यह इस मुद्दे को आग देने की कोशिश है। खून खौलता है। इससे भावनाओं को ही ठेस पहुंच रही है। अहम मुद्दा यह है कि जघन्य अपराध हुआ है। उस अपराधी को मौत की सजा सुना दी गई है। उसे जल्द से जल्द उसे सजा मिलनी चाहिए। हालांकि अब ये मामला और तूल पकड़ेगा। यह किसी फिल्म मेकर को अधिकार नहीं है कि जिस व्यक्ति को मौत की सजा सुना दी गई हो, उसका पक्ष रखा जाए और इससे हासिल क्या होगा? इससे बीमार मानसिकता ही निकलकर सामने आ रही है। मूलत: एक अपराधी और अपराध को ही ग्लेमराइज किया जा रहा है। गंदी बातें हैं, सभी को पता हैं मगर ये अपराधी के मुंह से नहीं होनी चाहिए। यह अभिव्यक्ति के अधिकार का ज्यादा फायदा उठाने का मामला है। अब अहम यह है कि जल्द से जल्द अपराधी को सजा होनी चाहिए।
 
 
साहित्यकार, उपन्यासकार तेजेन्दर शर्मा भारतीय संसद की एक परम्परा रही है कि यह किसी भी पुस्तक या फ़िल्म को बिना पढ़े या देखे उस पर प्रतिबन्ध लगा देती है। इस परम्परा को अलग अलग दलों की सरकारों ने अलग लग काल में निभाया है। वर्तमान सरकार ने भी इस परम्परा का निर्वाह किया है। 
 
webdunia
Leslee Udwin (बीबीसी) द्वारा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री India’s Daughter पर प्रतिबंध लगाने का कारण समझने के लिए ही मैनें बुधवार रात बीबीसी टीवी चैनल चार पर इसे देखा। यदि इस फ़िल्म पर लगे प्रतिबंध का शोर न मचा होता तो शायद मैं इसे देखना भूल जाता। 
 
इस डॉक्यूमेंट्री के तीन मुख्य पात्र हैं– ज्योति के माता-पिता एवं बस का ड्राइवर मुकेश। डॉक्यूमेंट्री की निर्देशक ने बहुत मेहनत से अलग–अलग किरदारों से बात की है और इस भयानक कृत्य के बारे में लोगों के दिलों में सही भाव जागृत करने का प्रयास किया है। ज्योति के माता पिता की दिल की भावनाओं को यह डॉक्यूमेंट्री शिद्दत से पेश करती है।
 
ड्राइवर मुकेश की बातें सुनकर एक आम मनुष्य को पता चलता है कि आख़िर एक बलात्कारी की सोच क्या होती है। उसकी कही बातों पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए। वह तो यहां तक कह जाता है कि यदि ज्योति प्रतिरोध न करती तो उसे केवल (ध्यान दीजिए) रेप करके छोड़ दिया जाता। वह यहीं नहीं रुका, उसने आगे कहा कि उन्होंने तो केवल इतना ही किया और लोग तो बलात्कार करने के बाद आंखें निकाल लेते हैं या फिर जला भी देते हैं। उसने पवन गुप्ता, अक्षय ठाकुर और नाबालिग बलात्कारी के बारे में भी जानकारियां दीं।
 
बचाव पक्ष के दोनों वकील– एमएल शर्मा एवं एपी सिंह लगभग अनपढ़ों की भाषा में बात कर रहे थे। एपी सिंह की पुरानी रिकॉर्डिगं भी दिखाई गई जिसमें वह बेवक़ूफ़ी भरी बात कहता है कि यदि उसकी बहन या बेटी रात को अपने प्रेमी के साथ बाहर जाती तो वह उसे ज़िन्दा जला देता।  तिहाड़ जेल के मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. संदीप गोविल ने अपनी हांकी,  “These rapists are normal human beings with anti-social traits in them.”
 
अब उस वाक्य पर आते हैं जिसके कारण इस फ़िल्म पर बैन लगा। बचाव पक्ष के वकील एपी सिंह ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि संसद में 200 से अधिक सांसदों पर बलात्कार और इससे भी अधिक ख़तरनाक इल्ज़ाम लगे हैं। उनके लिए फ़ास्ट ट्रैक अदालतें क्यों नहीं चलाई जातीं। क्या उन सांसदों के लिए इन बलात्कारियों से अलग किस्म का लोकतंत्र है भारत में?...  बेचारे राजनाथसिंह अगर इस फ़िल्म को बैन ना करते तो क्या करते….
 
सच तो यह है कि इस फ़िल्म को भारत के हर चैनल पर दिखाया जाए तो ज्योति के माता पिता का दर्द और बलात्कारियों और उनके वकीलों की पशुता सबके सामने उजागर हो जाएगी। सबके होठों पर एक ही सवाल होगा.... फ़ास्ट ट्रैक अदालतों का क्या हुआ?

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi