उमाशंकर मिश्र
नई दिल्ली, उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के बाद सबसे अधिक बर्फ का इलाका होने के कारण हिमालय को तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है। हिमालय में जैव विविधता की भरमार है और यहां पर 10 हजार से अधिक पादप प्रजातियां पायी जाती हैं। इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। भारत की जलवायु में हिमालय के योगदान पर चर्चा करते हुए यह बात हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर एस.पी. सिंह ने कही है।
वह विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर सीएसआईआर-राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (एनबीआरआई), लखनऊ द्वारा आयोजित एक वेबिनार में बोल रहे थे।
प्रोफेसर सिंह बताया कि गंगा के विस्तृत मैदानी इलाके में मानवीय गतिविधियों से उपजा प्रदूषण हिमालयी पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचा रहा है। उन्होंने कहा कि हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की दर अलग-अलग देखी गयी है। पश्चिम हिमालय में पूर्वी हिमालय की तुलना में ग्लेशियरों पर अधिक प्रभाव देखने को मिल रहा है। हिमालय के 50 से भी अधिक ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। इसका सीधा असर हिमालयी वनस्पतियों के वितरण, ऋतु जैविकी (Seasonal Biology) एवं कर्यिकी (Taxation) पर स्पष्ट रूप से दिखने लगा है।
उन्होंने बताया कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों के वनों के साथ-साथ निचले हिमालयी क्षेत्रों में फसली पौधों पर भी प्रभाव पड़ने लगे हैं। उदाहरण के तौर पर सेब की फसल के कम होते उत्पादन के कारण किसानों की न सिर्फ आय कम हो रही है, बल्कि किसान दूसरी फसलों की खेती ओर मुड़ रहे हैं। एनबीआरआई के निदेशक प्रोफेसर एस.के. बारिक ने इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस की थीम “सेलिब्रेट बायोडायवर्सिटी” के बारे में चर्चा करते हुए कहा कि संस्थान पर्यावरण सुधार एवं भारत की जैव-विविधिता संरक्षण में सदैव तत्पर है।
प्रोफेसर एस.पी. सिंह ने बताया कि वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के चलते धरती के तापमान में बढ़ोतरी मनुष्यों, पशु-पक्षियों एवं पौधों सभी को प्रभावित कर रही है। अतः हमें इसके साथ जीने की कला सीखने के साथ इसके साथ अनुकूलन स्थापित करने के उपाय भी खोजने होंगे। (इंडिया साइंस वायर)