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गिरीश निकम... और मौत जीत गई

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-गुरदीप सिंह सप्पल
गिरीश निकम चले गए। मौत ने पिछले साल भी उनके दिल पर दस्तक दी थी। तब भी उनकी धड़कन को पूरी तरह जकड़ कर थाम दिया था। लेकिन न्यूयॉर्क की आपात मेडिकल सुविधाओं ने उसे परास्त कर दिया था। मौत, जो सिगरेट और रम के बुलावे पर आई थी, धीरे धीरे पीछे हटती गई, वेंटिलेटर पर साँसें वापस सामान्य होती गईं। गिरीश जी उठे और फिर स्क्रीन पर छा गए।
 
लेकिन, आज मौत जीत गई। पिछले महीने ही गिरीश के सारे टेस्ट सही आए थे। वो ख़ुश थे। उन्हें नहीं मालूम था कि इस बार बुलावा शायद दिल्ली में छाए प्रदूषण का था और मेडिकल सुविधा दिल्ली के सरकारी अस्पताल की थी, जहाँ वक़्त पर वेंटिलेटर उपलब्ध ही नहीं हो सका। इसलिए इस बार धड़कन जब थमी तो फिर हरकत में नहीं आई और गिरीश अलविदा कह ही गए। तेरह महीनों के इस अनुभव ने यह तो समझा ही दिया कि ज़िंदगी और मौत सिर्फ़ ऊपर वाले के हाथ नहीं है, बल्कि देश, परिस्थिति और मेडिकल सुविधाओं की भी ग़ुलाम हैं।
 
गिरीश से जब राज्यसभा टीवी का पहला शो ऐंकर करने को कहा गया तो वे ऐंकरिंग की स्थापित परम्परा की एंटीथीसिस थे। लेकिन आज जब वो अंतिम शो कर स्टूडियो की दहलीज़ से जीवन से रुखसत हुए, तो टीवी डिबेट की नई परिभाषाएँ गढ़ चुके थे।
 
जब हमने पहला कार्यक्रम डिज़ाइन किया तो चर्चा हुई कि ऐंकर कौन करे। हम लीक से हटकर टीवी डिबेट का प्रयोग करना चाहते थे। सम्पादकीय मीटिंग में मैं, उर्मिलेश, राजेश बादल और अनिल नायर थे। ये विचार बना कि टीवी दर्शक स्टाइल से परे, कुछ गंभीर परिचर्चा भी देखना चाहते हैं। यह कुछ कुछ यूटोपीयन सा ख्याल ही था। सर्वसम्मति बनी की गिरीश से ऐंकर कराया जाए। वैसे इस सर्वसम्मति से ख़ुद गिरीश भौंचक्के थे। उन्होंने ऐंकरिंग तो दूर, कभी टीवी के लिए रिपोर्टिंग तक नहीं की थी। इसलिए पहले तो तैयार नहीं हुए। पर जब उन्हें हर तरह की मदद का भरोसा दिया गया, ट्रेनिंग का वादा दिया गया, आश्वस्त किया गया तो आख़िरकार राज़ी हुए।
 
यह हमारा पहला प्रयोग था। शुरुआती लड़खड़ाहट के बाद गिरीश ने जो रफ़्तार पकड़ी, जो स्टाइल विकसित हुआ, वही अब राज्यसभा टीवी की पहचान बन गया है। शालीन स्वर में, बिना उत्तेजना के तीखे सवाल पूछने की कला और सभी पक्षों को अपने विचार रखने की मोहलत गिरीश के कार्यक्रम की और चैनल की विशिष्टता बन गए। हमने तय किया था कि राज्यसभा टीवी देखने वाले सभी दर्शकों को हर डिबेट में कुछ नई जानकारी मिले और वे सभी पक्षों के तर्क से अवगत हों, उसमें हम शायद सफल हुए हैं। इसमें गिरीश का बहुत बड़ा योगदान है। इसीलिए हर राजनीतिक विचारधारा में उसके बहुत से घनिष्ठ मित्र बने। प्रबुद्ध दर्शकों का एक बहुत बड़ा वर्ग और ख़ासतौर पर कॉम्पटीशन परीक्षा देने वाले छात्र गिरीश के नियमित दर्शक थे और आज के बाद वे उन्हें निश्चित ही मिस करेंगे।
 
गिरीश एक स्वाभिमानी, ज़िंदादिल आदमी थे। साफ़ स्पष्ट, तार्किक सोच। नास्तिक थे। कोई लाग लपेट नहीं। दिल और ज़ुबान के बीच कोई फ़ासला नहीं था। अपनी ही टेक के मालिक थे। लेकिन सुलझे हुए और अनुभवी पत्रकार थे। शुरू में उन्हें हम सब से सामंजस्य बैठाने में कुछ दिक़्क़त आई, पर जब उन्हें आश्वस्त किया गया कि हमारी परिकल्पना ऐसे चैनल की है जहाँ हर व्यक्ति अपने स्वभाव के साथ रह सके, हर पत्रकार की अपनी व्यक्तिगत स्पेस हो और केवल पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों पर फ़ोकस रहे, तो वो ढलते गए और फिर तो इस चैनल की संस्कृति गढ़ने में अग्रणी ही रहे।
 
राज्यसभा टीवी के सबसे उम्रदराज़ पत्रकार थे, लेकिन सबसे युवा पत्रकारों की दोस्ती कमोवेश उनसे ही पहले होती थी। कितनी ही बार ऐसा हुआ कि किसी जूनियर सहयोगी को कोई समस्या हुई तो सबसे पहले गिरीश से ही साझा की। वह अपने से बहुत कम उम्र के इन पत्रकारों के दोस्त तो थे ही, ख़ुद को उनका शिक्षक भी मानते थे। उनको गढ़ने की, निखारने की लत सी थी उन्हें। इसी में सुकून भी पाते थे और गर्व भी करते थे।
 
जो व्यक्ति उम्र के दायरे को नकार कर जिया, आज वो उम्र के दायरे से ही बाहर हो गया है। उसकी कमी खलेगी। जीवन क्षणभंगुर है, ये पढ़ा तो बहुत है, महसूस आज हुआ, पूरी शिद्दत के साथ हुआ। अलविदा गिरीश!
 
राज्यसभा टीवी के सभी साथी तुम्हारी कमी हमेशा महसूस करेंगे। (लेखक राज्यसभा टीवी के सीईओ हैं) 

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