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हरियाणा : सत्ता के कुरुक्षेत्र में भाजपा को तीन तलाक, सर्जिकल स्ट्राइक और 370 का ही सहारा!

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अनिल जैन

दक्षिण हरियाणा के रेवाड़ी जिला मुख्यालय पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी रैली के साथ ही राज्य विधानसभा के चुनाव के लिए शनिवार को प्रचार थम गया। चुनाव प्रचार के आखिरी 3 दिनों में मोदी ने यहां धुआंधार प्रचार करते हुए करीब 8 रैलियों को संबोधित किया है। अब 21 अक्टूबर को वोट डाले जाएंगे। सवाल है कि हरियाणा इस बार किसका होगा? लगभग 2 महीने पहले मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की अगुआई में निकली 22 दिन की 'जन आशीर्वाद’ यात्रा के समापन के मौके पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 'अबकी बार 75 पार' का लक्ष्य घोषित किया था। खुद मुख्यमंत्री खट्टर ने भी दावा किया था कि भाजपा ऐतिहासिक जीत हासिल कर सूबे की राजनीति में एक नया इतिहास रचेगी। लेकिन हकीकत यह है कि जैसे-जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आती गई वैसे-वैसे शाह और खट्टर के दावे की हवा निकलती दिखाई दी है।

हालांकि भाजपा ने अपने दावे को हकीकत में बदलने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है। उसकी ओर से हर मुमकिन दांव अपनाया गया। इस सिलसिले में उसने विपक्षी दलों की आपसी फूट और उनके भीतर गुटबाजी को भुनाते हुए जातीय समीकरणों के आधार पर उनके कई बदनाम नेताओं को भाजपा में शामिल करने से भी गुरेज नहीं किया। पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया है। यही नहीं, शिक्षक भर्ती घोटाले में दोषी पाए जाने के बाद जेल की सजा काट रहे पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला को मिले 2 महीने के पैरोल का भी फायदा उठाने की भाजपा ने भरपूर कोशिश की।

84 वर्षीय चौटाला ने इन 2 महीनों के दौरान पूरे सूबे में लगभग 2 दर्जन सभाएं कर अपनी पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल का प्रचार किया। चुनाव से ऐन पहले चौटाला 2 महीने के पैरोल पर जेल से बाहर कैसे आए और राजनीतिक गतिविधियों में कैसे भाग लेते रहे, इस सवाल का जवाब तो वही दे सकता है जिसने उनका पैरोल मंजूर किया होगा। मगर उनकी सक्रियता से जाट वोट बंटने का पूरा फायदा किसे हो सकता है, यह समझना मुश्किल नहीं है।

जेल से बाहर आए चौटाला की सक्रियता पर भाजपा की चुप्पी से भी पूरे मामले को समझा जा सकता है।
भाजपा का दावा है कि वह अपनी सरकार के पिछले 5 वर्षों के कामकाज के आधार पर चुनाव मैदान में उतरी है, लेकिन उसके द्वारा अपनाए गए तमाम हथकंडे बताते हैं कि उसे अपने कामकाज के आधार पर फिर से सत्ता में लौटने का भरोसा नहीं है। सूबे में ऐसा कोई तबका नहीं है जो सरकार के कामकाज से जरा भी संतुष्ट हो। केंद्र और राज्य सरकार की नीतियों के चलते सूबे में वर्षों से लगे उद्योग बंद हो चुके हैं तो कई पलायन कर सूबे से बाहर जा रहे हैं।
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राज्य सरकार खुद भी रोजगार के नए अवसर पैदा करने में नाकाम रही है, जिसके चलते हरियाणा बेरोजगारी के मामले में पूरे देश में सबसे ऊपर है। किसानों से उनकी फसल उचित दामों पर खरीदने के दावे तो सरकार की ओर से खूब किए गए हैं, लेकिन इस सिलसिले में सारी घोषणाएं और दावे महज कागजी साबित हुए हैं। सूबे का किसान बुरी तरह परेशान है। मनरेगा के तहत भी लोगों को पर्याप्त काम नहीं मिल रहा है। जिन लोगों को काम मिल रहा है तो उन्हें मजदूरी का भुगतान समय से नहीं हो पा रहा है।

प्रधानमंत्री ने अपने बहुप्रचारित 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ अभियान की शुरुआत हरियाणा से ही की थी, लेकिन इस अभियान की सबसे हास्यापद स्थिति भी इसी सूबे में बनी है। जहां लड़कियों के स्कूल जाने की दर में पिछले 5 साल में उत्तरोत्तर गिरावट दर्ज हुई है, वहीं बलात्कार की घटनाओं में बेतहाशा इजाफा हुआ है।
राज्य सरकार के खिलाफ लोगों में व्याप्त असंतोष का अंदाजा खुफिया रिपोर्टों के आधार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री तथा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को भी अच्छी तरह है। इसीलिए उन्होंने अपने चुनाव प्रचार का फोकस पूरी तरह अनुच्छेद 370, तीन तलाक, सर्जिकल स्ट्राइक, सेना के सम्मान और पाकिस्तान पर केंद्रित रखकर लोगों के असंतोष को थामने की कोशिश की है। उन्होंने अपने किसी भी भाषण में देश की अर्थव्यवस्था या हरियाणा के किसी भी स्थानीय मुद्दे को नहीं छुआ।

मोदी और शाह की तमाम कोशिशों के बावजूद स्थानीय मुद्दों को लेकर लोगों की नाराजगी कई विधानसभा क्षेत्रों में साफ देखने को मिली है। सूबे में भाजपा के दिग्गज नेता एवं शिक्षामंत्री रामविलास शर्मा का उनके चुनाव क्षेत्र सतनाली के कई गांवों में इस कदर विरोध हुआ है कि उन्हें बगैर जनसंपर्क किए ही बैरंग लौटना पड़ा है। क्षेत्र के लोग और खासकर पार्टी कार्यकर्ता रामविलास से ज्यादा उनके बेटे गौतम शर्मा की बदजुबानी और बदमिजाजी से खासे नाराज हैं।

कृषिमंत्री ओमप्रकाश धनखड़ भी अपने बादली विधानसभा क्षेत्र में इस बार लोगों के निशाने पर हैं। यहां लोगों की नाराजगी का कारण सिंचाई की समस्या और अन्य स्थानीय मुद्दों को लेकर है। पार्टी कार्यकर्ता भी अपनी उपेक्षा से आहत होकर चुनाव में धनखड़ से दूरी बनाए हुए हैं। सबसे ज्यादा पतली हालत राज्य के वित्तमंत्री और पिछली बार मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे कैप्टन अभिमन्यु की है।

5 महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव के दौरान भी उन्हें क्षेत्र में जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा था। उनसे उनकी पार्टी के कार्यकर्ता ही नहीं बल्कि आम मतदाता खासकर किसान और नौजवान नाराज हैं। नारनोद की अनाज मंडी में 14 अक्टूबर को सरकार की नीतियों के खिलाफ भारी विरोध प्रदर्शन हुआ, जिसको काबू करने में प्रशासन के हाथ-पांव फुल गए। इस विरोध ने कैप्टन अभिमन्यु की चुनावी संभावनाओं पर भी सवाल खड़ा कर दिया है। भाजपा के कई अन्य मंत्री और 2 या 3 बार के विधायक भी इस बार अपने-अपने क्षेत्र में लोगों के गुस्से का शिकार हो रहे हैं।

भाजपा ने तमाम सामाजिक समीकरणों को साधते हुए उम्मीदवारों का चयन किया था, लेकिन कांग्रेस में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुडा और कुमारी शैलजा के पार्टी की कमान संभालने से चुनावी रंगत काफी हद तक बदल गई है। हालांकि संगठन और साधन के स्तर पर भाजपा के खिलाफ कांग्रेस बेहद कमजोर है, लेकिन भाजपा के प्रति समाज के विभिन्न तबकों में व्याप्त असंतोष ही उसकी उम्मीदों का सबसे बड़ा सहारा है। लोगों के इस असंतोष को भाजपा मतदान के दिन कितना थाम पाती है और कांग्रेस अपने पक्ष में कितना भुना पाती है, यह तो चुनावी नतीजों से ही पता चलेगा।

फिलहाल यही कहा जा सकता है कि भाजपा की जैसे-तैसे वापसी तो हो सकती है, मगर 75 पार का लक्ष्य महज सपना ही रहेगा, भले ही भाजपा नेता और टीवी चैनलों के सर्वेक्षणों में चाहे जो दावे किए जाएं।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)

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