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लद्दाख का इतिहास गवाह है, अब जंग हुई तो मुंह दिखाने लायक नहीं रहेगा चीन...

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संदीपसिंह सिसोदिया

, गुरुवार, 6 जुलाई 2017 (12:05 IST)
चीन अपनी काली करतूतों को छिपाने के लिए भारत को लाख गीदड़ भभकियां दे, बार-बार 1962 के युद्ध की याद दिलाए, लेकिन उस युद्ध का इतिहास तो कुछ और ही इशारा करता है। लद्दाख इलाके में हमारे मुट्‍ठीभर सैनिकों ने 1700 चीनियों को मौत के घाट उतार दिया था। तब के राजनीतिक नेतृत्व की कमजोरियां और सैनिक साजोसामान की कमी की वजह से हमें अपनी हजारों वर्गकिलोमीटर जमीन खोना पड़ी थी, लेकिन अब स्थितियां बिलकुल उलट हैं। चीन को यह भी समझ लेना चाहिए कि हमारे बहादुर सैनिकों का हौसला तो वही 1962 वाला ही है, साथ ही संसाधनों के मामलों में भी अब हम पीछे नहीं हैं। अब यदि चीन ने गुस्ताखी की तो संभव है वह दुनिया को मुंह दिखाने के लायक ही नहीं रहे। 
 
18 नवंबर 1962 का दिन भारतीय सेना के स्वर्णिम इतिहास में एक खास स्थान रखता है। इसी दिन भारतीय सेना की सबसे पुरानी रेजीमेंट में से एक 13 कुमायुं रेजीमेंट (स्थापना 1813) की सी (चार्ली) कंपनी के लीडर मेजर शैतान सिंह (परमवीर चक्र विजेता) और उसके 123 वीर जवानों ने चीनी आक्रमण का मुंहतोड़ जवाब दिया था। इन वीरों ने अपनी रेजीमेंट के जयघोष 'पराक्रमो विजयते' को शब्दश: सच कर दिखाया। 
 
1962 का साल भारत के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण रहा था। 'हिंदी-चीनी भाई-भाई' का नारा लगाते हुए चीनी सैनिक धीरे-धीरे भारतीय इलाकों में घुसपैठ करने लगे थे। देखते ही देखते नेहरू के पंचशील सिद्धांत को ठोकर मार चीन ने भारत के विरुद्ध युद्ध छेड दिया। हजारों किमी लंबी भारत-चीन सीमा पर लड़ाई छिड़ चुकी थी। सीमित संसाधन और हथियारों के बावजूद भारतीय सेना के हौसले बुलंद थे। वैसे तो इस लड़ाई में भारतीय सेना की बहादुरी के कई किस्से मशहूर हैं, लेकिन मेजर शैतान सिंह और उनकी सी कंपनी की बहादुरी ने 18 नंवबर 1962 को भारतीय सेना के लिए एक मिसाल गढ़ दी। आइए जानते हैं उन वीरों के बारे में, जिन्होंने भारत की रक्षा के लिए अंतिम सांस और अंतिम गोली तक लड़ाई लड़ी... 
 
लद्दाख की बर्फीली उंचाईयों में स्थित चूशुल में तैनात 13 कुंमायु रेजीमेंट की चार्ली कंपनी को मेजर शैतान सिंह लीड कर रहे थे। इस कंपनी के पास खासतौर पर रेजांगला पास (दर्रा) रक्षा की जिम्मेदारी थी, यह सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण इलाका था, लेकिन इस कंपनी की पोजीशन पहाड़ी के पीछे की ओर थी और तोपखाने भी यहां उनकी कोई सहायता नहीं कर सकते थे, वहीं यह पोजीशन चीनी आर्टीलरी की निशाने पर थी। 
 
भारतीय सैनिकों को पता था कि उन्हें यह जंग बिना किसी आर्टीलरी सपोर्ट के लड़नी और चीनी सेना को पूरी तौर पर आर्टीलरी सहायता मिल रही थी। 17-18 नवंबर की दरमियानी रात चीनी तोपखाने गरजते रहे। रातभर चार्ली कंपनी पर भारी गोलाबारी हुई और जैसी कि उम्मीद थी अगले दिन चीनी इंफेंट्री के 2 हजार से ज्यादा सैनिक एक सूखी नदी के तल से होते हुए जैसे ही खुले में आए वैसे ही मेजर शैतान सिंह की हैवी मशीनगनों के अपना काम शुरू कर दिया। 
 
20 चीनी सैनिकों के मुकाबले एक भारतीय सैनिक था लेकिन मेजर शैतान सिंह ने हर मोर्चे पर जाकर अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाते रहे। भीषण लड़ाई में मेजर शैतान सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए लेकिन फिर भी वे दुश्मनों से जा भिड़े। अपने सेनानायक की बहादुरी देख चार्ली कंपनी भी काली माता की जय, बजरंग बली की जय का युद्धघोष कर दुश्मनों पर साक्षात मौत बन कर टूट पड़ी। लड़ाई इतनी भीषण थी कि गोलियां खत्म होने पर कुंमायुं रेजिमेंट के जवान खाली हाथ ही चीनियों पर टूट पड़े।
 
अगले पन्ने पर जानिए क्यों चीनी भी दंग थे शैतान सिंह की बहादुरी पर... 
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घंटों चली भीषण लड़ाई में लगभग 1700 चीनी सैनिक मारे गए लेकिन वीर चार्ली कंपनी के 123 में से 114 लड़ाके अपनी अंतिम सांस तक अपनी मातृभूमि के लिए लड़ते हुए शहीद हुए और बचे हुए जवान गंभीर घायल। चीनी सैनिक भी उनकी बहादुरी देख दंग रह गए। यहां तक कि चीनी अधिकारी भी इन रणबांकुरों की बहादुरी पर दर्प करने लगे थे। 
 
इस जंग में शहीद हुए मेजर शैतान सिंह को उनकी अनुकरणीय बहादुरी और अंतिम समय तक रीजांग ला की रक्षा करने के लिए भारत के सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से नवाज़ा गया। इसके अलावा उनकी कंपनी के नायक हुकुम चन्द (मरणोपरांत), सूबेदार रामकुमार और सूबेदार रामचन्दर को भी वीर चक्र से नवाजा गया। उल्लेखनीय है कि इस चार्ली कंपनी को अब रेजांगला कंपनी का खिताब मिला है, इसके पहले सभी राइफल कंपनियों को अल्फा, ब्रावो और चार्ली नाम से जाना जाता था। इसके अलावा हरियाणा के रेवाडी इलाके (इस कंपनी में अधिकतर जवान इसी क्षेत्र के निवासी थे) में इस वीरता का स्मारक बना है।

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