उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का अचानक इस्तीफा भारतीय राजनीति में चर्चा का विषय बना हुआ है। आधिकारिक तौर पर कारण स्वास्थ्य कारण बताया गया हो, लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स और राजनीतिक विश्लेषकों की टिप्पणियां कुछ और ही कहानी बयां कर रही हैं। ऐसा लग रहा है कि यह इस्तीफा 'लिया गया' है, न कि 'दिया गया'।
'दैवीय हस्तक्षेप' और समय से पहले विदाई: जेएनयू में एक कार्यक्रम के दौरान धनखड़ ने खुद कहा था, "मेरा रिटायरमेंट (उपराष्ट्रपति पद से) सही वक्त पर ही होगा। और वो समय है अगस्त 2027 बशर्ते दैवीय हस्तक्षेप न हो" उनका यह बयान अब और भी महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि उनका कार्यकाल अगस्त 2027 तक था और उनका इस्तीफा समय से काफी पहले आ गया है। सवाल उठता है कि क्या यह 'दैवीय हस्तक्षेप' वास्तव में कोई अदृश्य शक्ति थी या फिर इसके पीछे कोई गहरी राजनीतिक वजह थी?
जस्टिस यशवंत वर्मा विवाद और सरकार की नाराजगी : उनके इस्तीफे के पीछे एक बड़ा कारण जस्टिस यशवंत वर्मा को हटाने की मांग से जुड़ा हो सकता है। 63 विपक्षी सांसदों द्वारा जस्टिस वर्मा को हटाने की मांग को उपराष्ट्रपति ने स्वीकार कर लिया था। सरकार इस कदम से हैरान थी, क्योंकि उसकी योजना इस प्रस्ताव को लोकसभा में द्विदलीय पहल के रूप में शुरू करने की थी। धनखड़ ने न केवल इस नोटिस को स्वीकार किया, बल्कि राज्यसभा को यह भी बताया कि यदि दोनों सदनों में समान नोटिस प्रस्तुत हुए तो आरोपों की जांच के लिए एक संयुक्त समिति गठित की जाएगी। यह ऐसे समय में हुआ, जब सरकार के प्रबंधक राज्यसभा में एनडीए सांसदों से समर्थन जुटा रहे थे, ताकि प्रस्ताव का द्विदलीय स्वरूप बना रहे। इस घटना ने निश्चित रूप से सरकार को असहज कर दिया होगा।
सत्ताधारी दल से बढ़ती असहजता : राजनीतिक विश्लेषक शीला भट्ट के अनुसार भारतीय लोकतंत्र में जहां विधायिका का नियंत्रण सरकार के पास होता है, यदि सरकार सतर्क न रहे तो उसे गिराया भी जा सकता है। भट्ट का मानना है कि भाजपा के पास मोदी सरकार की स्थिरता के लिए धनखड़ को अपने रास्ते से हटाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। राज्यसभा के सभापति के रूप में जगदीप धनखड़ ने सरकार के सामने स्वयं को मुखर करना शुरू कर दिया था।
पिछले कुछ महीनों से वे सहमति बनाने और सत्तारूढ़ दल के साथ तालमेल बिठाकर काम करने के बजाय, कानून की किताब का हवाला देकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहे थे। सत्तारूढ़ पक्ष उनके साथ असहज महसूस कर रहा था और धनखड़ भी खुलेतौर पर अपनी असहजता प्रकट करते थे। वे कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के नेताओं, जिनमें आम आदमी पार्टी भी शामिल है, से मिलते समय सरकार के प्रति अपनी नाराजगी खुलकर साझा करते थे। यहां तक कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कट्टर आलोचकों के साथ "आज के भारत में लोकतंत्र की स्थिति" जैसे विषयों पर भी चर्चा की। इन सभी बातों की जानकारी बहुत जल्दी सत्तारूढ़ दल तक पहुंच गई थी। राज्यसभा सभापति के रूप में धनखड़ पूरी तरह नियंत्रण चाहते थे और वे लगातार अपनी बागी प्रवृत्ति दिखाने लगे थे।
बिहार चुनाव और 'पद खाली करने का यज्ञ': धनखड़ के इस्तीफे के पीछे एक और महत्वपूर्ण राजनीतिक आयाम बिहार के आगामी चुनाव से जुड़ा हो सकता है। बिहार में एनडीए गठबंधन कमजोर दिख रहा है और ऐसे में किसी बड़े पद पर किसी बिहारी नेता को बिठाकर जातीय समीकरण साधने की कोशिश की जा सकती है।
क्या यह इस्तीफा "पद खाली करने का यज्ञ" है, जिससे किसी जदयू नेता को उपराष्ट्रपति बनाकर बिहार में समीकरण साधे जाएं? इस संभावना को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता। कुछ नाम जो इस संदर्भ में चर्चा में हैं, वे हैं :
डॉ. हरिवंश: राज्यसभा के उपसभापति के रूप में उनका अनुभव और जदयू से उनका जुड़ाव उन्हें एक मजबूत दावेदार बनाता है।
रामनाथ ठाकुर: बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के बेटे होने के नाते, उनका नाम जातीय वोटों को आकर्षित करने और सामाजिक संतुलन बनाने में सहायक हो सकता है। इनमें से किसी भी नाम को उपराष्ट्रपति पद पर लाना बिहार में भाजपा के लिए राजनीतिक लाभ दिला सकता है और एनडीए गठबंधन को मजबूती प्रदान कर सकता है।
संक्षेप में जगदीप धनखड़ का इस्तीफा 'दैवीय हस्तक्षेप' से अधिक एक राजनीतिक विवशता का परिणाम प्रतीत होता है, जहां उनके बढ़ते मुखर रवैये और सरकार से असहज संबंधों ने उन्हें अपने पद से हटने पर मजबूर कर दिया। इसके साथ ही, बिहार के आगामी चुनाव और जातीय समीकरण साधने की भाजपा की रणनीति भी इस अचानक इस्तीफे के पीछे एक महत्वपूर्ण कारक हो सकती है।