जब हम बाल मजदूरों की इन कहानियों के जरिए बाल श्रम की इन अंधेरी गलियों में घुसते हैं तो लगता है कि यह कभी खत्म नहीं होगी। लेकिन स्थानीय प्रशासन और कानून प्रवर्तन एजेंसियों की सहायता से बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्थाओं जैसे कि बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) आदि की अथक कोशिशों को देखते हुए मन में एक उम्मीद जगती है कि यह अंधेरी गली कितनी ही लंबी क्यों ना हो, आखिर में खत्म होगी ही। और हम बच्चों के सहारे एक बेहतर भविष्य का निर्माण होते हुए देख सकेंगे।
बचपन बचाओ आंदोलन, बाल श्रम से छुड़ाए गए बच्चों की न केवल पढ़ाई सुनिश्चित करवाता है बल्कि, उसके परिवार को सरकार की अलग-अलग कल्याणकारी योजनाओं से भी जोड़ता है। इन कोशिशों से बीबीए इसे सुनिश्चित करने की कोशिश करता है कि बाल श्रम से मुक्त बच्चा एक बार फिर से इन अंधेरी गलियों में न भटक जाए।
लेकिन, इन बच्चों के फिर से मजदूर बनने की आशंका इसलिए भी बनी रहती है, क्योंकि कई दलालों की गिद्ध दृष्टि इन जरूरतमंद बच्चों पर रहती हैं। ये दलाल इन मासूम बच्चों के परिवार की कुछ आर्थिक मदद कर उन्हें अच्छे पैसे पर काम दिलाने की लालच देकर शहरों में ले जाते हैं और फिर कुछ पैसे के बदले इन बच्चों को शोषण की दुनिया में धकेल देते हैं। इस दुनिया में रहते हुए इन बच्चों की स्मृतियों में सुखद लम्हों की जगह केवल दु:ख और पीड़ा के क्षण ही जमा होते चले जाते हैं। हम आपके लिए बाल श्रम की इन्हीं अंधेरी गलियों से निकलने वाले तीन बाल मजदूरों की कहानियां लेकर आए हैं।
नीरज को अपने कंधों पर बस्ता की जगह परिवार की जिम्मेदारियों को उठाना पड़ी।
17 वर्षीय नीरज (बदला हुआ नाम) बिहार स्थित मधुबनी के काफी गरीब परिवार से है। उसे बीती 28 मार्च, 2023 को दिल्ली के मायापुरी से छुड़ाया गया था। इसके बाद उसने अपने उन संघर्षों के बारे में खुलकर बात की, जिसने उसके लिए बाल श्रम की अंधेरी गली का रास्ता दिखाया था। जिस उम्र में बच्चों के कंधों पर किताब और कॉपियों का बस्ता रहता है, उस उम्र में उसे अपने परिवार को चलाने की जिम्मेदारी उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके लिए नीरज अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर काम की तलाश में दिल्ली के लिए निकल पड़ा, जहां उसे एक मोबाइल फैक्ट्री में काम मिला।
इस दौरान उसे नारकीय स्थिति में 12 घंटे से अधिक काम करना पड़ता था। इसके बावजूद नीरज के हाथों को न्यूनतम मजदूरी भी नसीब नहीं होती थी। उनकी शोषण की कहानी का अंत यहीं नहीं होता है। फैक्ट्री में नीरज को काम के दौरान न तो ब्रेक दिया जाता था और न ही अपने परिवार के पास जाने के लिए छुट्टियां ही मिलती थीं। शरीर और दिलो-दिमाग को तोड़कर चकनाचूर करने वाली इन परिस्थितियों के बावजूद वह पांच महीने से अधिक उस समय तक काम करता रहा, जब तक उसे छुड़ा नहीं लिया गया।
कोरोना काल में आकाश के परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा
दूसरी कहानी दिल्ली से सैकड़ों किलोमीटर दूर तेलंगाना के मेडचल- मल्काजगिरी में खतरनाक परिस्थितियों में काम करने वाले 13 वर्षीय आकाश (बदला हुआ नाम) की है। अपनी आजीविका के लिए पारंपरिक रूप से खेती पर निर्भर उसके परिवार की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही थीं। इसके लिए उसके परिवार को रोजगार के लिए रंगारेड्डी शहर का रूख करना पड़ा। लेकिन कोरोना महामारी के चलते पैदा हुई स्थिति ने इनकी सारी योजनाओं पर पानी फेर दिया। इसके बाद उनका परिवार एक बार फिर बेबसी की स्थिति में आ गया, जहां उनके अभावग्रस्त घर में चूहे भी उदास घूमते हुए दिख रहे थे।
परिवार में बड़ा बेटा होने के चलते आकाश को अपनी जिम्मेदारियों का एहसास था। इस जिम्मेदारी के एहसास तले काम ढूंढने के दौरान उसे एक स्क्रैप की दुकान में बतौर हेल्पर काम मिला, जहां से उसे फरवरी, 2023 में आकाश को स्क्रैप की दुकान से मुक्त करवाया गया था।
पिता के अचानक निधन ने आमिर को बाल श्रम में धकेल दिया
इस कड़ी की तीसरी और आखिरी कहानी भी रंगारेड्डी के 13 वर्षीय आमिर (बदला हुआ नाम) की है। उसे 21 जुलाई, 2022 को एक बढ़ई की दुकान से छुड़ाया गया था। आमिर छह सदस्यों वाले परिवार में सबसे बड़ा बेटा था। उसके परिवार में उनकी मां, एक भाई और तीन दिव्यांग बहनें हैं। आमिर के परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ उस समय टूट पड़ा, जब उनके पिता का अचानक निधन हो गया, जिनके कंधों पर पूरे परिवार को चलाने की जिम्मेदारी थी। इससे उसके परिवार के सामने आजीविका के संकट की स्थिति पैदा हो गई।
इसके बाद परिवार को फिर से खड़ा करने की जिम्मेदारी आमिर की मां और दो बहनों ने उठाने की कोशिश की। लेकिन तीनों मिलकर भी मुश्किल से दो वक्त के खाने का इंतजाम कर पाती थीं। इस विकट स्थिति में मरता क्या नहीं करता के रास्ते पर चल अपनी पढ़ाई छोड़ केवल 50 रुपये की दिहाड़ी पर काम करने लगा, जहां के दलदल से उसे निकाला गया था।
लेखक निर्मल वर्मा ने कहा है- इस दुनिया में कितनी दुनियाएं खाली पड़ी रहती हैं, जबकि लोग गलत जगह पर रहकर सारी जिंदगी गंवा देते हैं
अगर इन बच्चों को बाल श्रम की अंधेरी गलियों से नहीं निकाला जाता तो वे इस तरह की गलियों में अपनी सारी जिंदगी गुजार देते। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है. हमने आपके सामने केवल तीन कहानियों को रखा है। ऐसी लाखों कहानियां या तो हमारे आस-पास घट रही होती हैं या फिर उनकी पटकथा तैयार की जा रही होती है। तमाम कोशिशों के बावजूद आज भी दुनिया के अलग-अलग कोने में 16 करोड़ बच्चे स्कूलों की जगह उन स्थानों पर हैं, जहां उन्हें नहीं होना चाहिए था। भारत में ऐसे बच्चों की संख्या एक करोड़ से अधिक है, जिनके बचपन को अभी भी उड़ने के लिए खुले आकाश का इंतजार है।
Edited: By Navin Rangiyal