नई दिल्ली। मुस्लिमों के एक बड़े संगठन ने उच्चतम न्यायालय द्वारा तीन तलाक, ‘निकाह हलाला’ और एक से अधिक महिलाओं से शादी की प्रथा की पड़ताल किए जाने का पुरजोर विरोध किया और कहा कि यह अदालत द्वारा कानून बनाने की तरह होगा और पर्सनल लॉज को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि वे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने एक नए हलफनामे में नरेंद्र मोदी सरकार के इस रुख को खारिज कर दिया कि शीर्ष अदालत को इन प्रथाओं पर पुनर्विचार करना चाहिए जो लैंगिक समानता जैसे मौलिक अधिकारों और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों का उल्लंघन हैं।
मुस्लिम समुदाय में मान्य इस प्रथा का बचाव करते हुए एआईएमपीएलबी के सचिव मोहम्मद फजलुर्रहीम ने कहा, 'अगर यह अदालत मुस्लिम पर्सनल कानूनों के सवालों पर अध्ययन करती है और शादी, तलाक तथा गुजारा भत्ता से जुड़े मामलों में मुस्लिम महिलाओं के लिए विशेष नियम बनाती है तो यह अदालत द्वारा कानून बनाना होगा और अधिकारों के विभाजन के सिद्धांत का उल्लंघन होगा।'
एआईएमपीएलबी ने सामुदायिक प्रथाओं की न्यायिक पड़ताल के विरोध के लिए आधार गिनाए हैं।
हलफनामे के मुताबिक याचिका में उठाए गए प्रश्न विधायी नीति से जुड़े हैं और संविधान के तहत समानता के अधिकार जैसे मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए पर्सनल लॉ को चुनौती नहीं दी जा सकती।
इसमें यह भी कहा गया है कि मुस्लिमों के पर्सनल कानूनों को सामाजिक सुधार के नाम पर फिर से नहीं लिखा जा सकता और संविधान के अनुच्छेद 25, 26 और 29 (धर्म का पालन करने की आजादी) के तहत इन प्रथाओं को संरक्षण प्राप्त है। 69 पन्नों के हलफनामे में कहा गया है कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम और मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) कानून के तहत मुस्लिम महिलाओं के पास पर्याप्त उपाय होते हैं। (भाषा)