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मूर्ख हैं वो इतिहासकार, जो पद्मावती को काल्पनिक किरदार कहते हैं

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डॉ. प्रवीण तिवारी

हमारे आज के इतिहासकार जो कर रहे हैं, वही पुराने इतिहासकारों ने भी किया। इरफान हबीब  और नजफ हैदर जैसे इतिहासकारों ने पद्मावती को काल्पनिक किरदार तक कह डाला। यदि  इनके नजरिए से इतिहास को खंगालने बैठे तो बाबर के आने के बाद इतिहास में की गई  छेड़खानी और अंग्रेजों से हमारे संघर्ष तक बात आकर सिमट जाती है। 
भला हो हमारे उन महान साहित्यकारों का जिनकी वजह से आज भी हम राम, कृष्ण और  वैदिक परंपरा में अपने इतिहास को पा लेते हैं, वरना हमारी हालत तो वो कर दी गई कि हम  बाबर के हमले के बाद ही अपने अस्तित्व को मानें। रही-सही कसर हमारे उन कथित अपनों ने  पूरी कर दी, जो खुद भी विदेशी आक्रांताओं के प्रभाव में आ गए। 
 
जब अपने कुछ कहते हैं तो लोग विश्वास करते हैं और यही वजह है कि इनका इस्तेमाल  जमकर इतिहास के पुराने पन्नों को मिटाने के लिए किया गया। इन सबके बीच मलिक  मुहम्मद जायसी जैसे सूफी भी हुए जिन्होंने इतिहास को साहित्य के नजरिए से लिखा। उनकी  वजह से इतिहास के कुछ पन्ने आज भी हमारे पास मौजूद हैं। ऐतिहासिक किताबों में जिनका  जिक्र नहीं, वो किरदार कभी हुए ही नहीं ये कहना उतना ही गलत है जितना अपने परदादा की  तस्वीर नहीं होने पर उनके अस्तित्व को खारिज कर देना। 
इतिहास किस्सों, कहानियों और साहित्य से ही आगे बढ़ता है। रामचरित मानस सिर्फ साहित्य  की अप्रतिम रचना मात्र नहीं है, हर भारतवासी के लिए उसके गौरवपूर्ण इतिहास की साक्षी भी  है। वाल्मीकि रामायण को परंपरागत अवधी भाषा में गोस्वामी ने लिखकर बदलते वक्त में भी  उस इतिहास को जिंदा रखा। महाभारत महज साहित्यिक रचना नहीं है, बल्कि वो हमारे समृद्ध  इतिहास का लेखा-जोखा है। सिर्फ कहानियों तक सिमट जाना बेवकूफी है। 
 
हमारे असली साहित्यकारों ने किस तरह से इतिहास को कलात्मकता के साथ पेश किया, इस  पर गौर करने की जरूरत है। हमारे इतिहास से एक बात तो साफ है कि हम आस्था से भरपूर  हैं। आस्था ही हमारे अस्तित्व का मूल है। इस आस्था पर न तो पहले कोई चोट कर पाया, न  आज कर सकता है और न ही भविष्य में कोई कर पाएगा। यही साहित्य या इतिहास हमें  मुगलों और अंग्रेजों के हमलों के बावजूद अपनी परंपरा से जोड़े रखता है।
 
इस इतिहास को जो नहीं समझते, उन्हें भारतीय इतिहास पर टिप्पणी करने की कोई जरूरत  नहीं है। वे वही काम कर रहे हैं, जो मुगलों के इतिहासकारों ने अपने आकाओं को पहचान  दिलाने के लिए किया था। दरअसल, इतिहास आईना दिखा देता है और इतिहास वर्तमान  आस्थाओं से भी जुड़ा होता है। वो लोग, जो सनातन सभ्यता को खत्म करने के लिए आए थे,  क्या ऐसा इतिहास लिखेंगे, जो सनातन सभ्यता के गौरव को बताए? 
 
जाहिर तौर पर इतिहास को भुलाने का भरसक प्रयास किया गया लेकिन जहां ज्ञानी पैदा होते  हैं, वहां आक्रांताओं की तिकड़में काम नहीं आतीं। ये ज्ञानी व्यास, तुलसी और वर्तमान समय में  विवेकानंद जैसे लोग हुए जिन्होंने इस सनातन सभ्यता के सही इतिहास को जिंदा रखने का  सफल प्रयास किया। 
 
दुनिया की किसी सभ्यता का इतिहास उतना अक्षुण्ण नहीं रह सकता जितना हमारा है। हम  जानते हैं कि योग हमारे ज्ञानियों की देन है, हम जानते हैं कि जिसे आज फिलॉसफी कहते हैं,  वो हमारे इतिहास की देन है। विदेशी आक्रांताओं ने यहां से चुरा-चुराकर अपना नया इतिहास तो  गढ़ लिया लेकिन वे हमारे मूल तत्वों पर चोट नहीं कर पाए।
 
ये सच है कि साहित्यिक रचनाओं में कवि या साहित्यकार को अपनी कल्पनाओं को भी रखने  की छूट मिलती है। आज के दौर के लेखक नरेन्द्र कोहली या ईशान महेश जैसे लोग आज भी  राम, कृष्ण और सुदामा जैसे किरदारों को लेकर अपने उपन्यास लिखते हैं। इसमें उनकी  कल्पनाएं होती हैं लेकिन ऐतिहासिक तत्वों को जस का तस लिया जाता है। सीता-राम या  राधा-कृष्ण का प्रेम हो या फिर हनुमानजी की भक्ति हो, इसका मूल तत्व कभी भी कोई नहीं  बदल पाएगा। तुलसी ने भी इसे ऐसे ही लिया, उनसे पहले वाल्मीकि ने भी। आज के  साहित्यकार भी नई कल्पनाएं गढ़ते हैं लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों के साथ कोई छेड़छाड़ कर ही  नहीं सकता, क्योंकि उसे पाठक स्वीकार ही नहीं कर पाएंगे।
 
रानी पद्मावती के सौन्दर्य को लेकर या उनके तोते को लेकर या उनके जीवन को लेकर कई  बातों पर जायसी ने अपनी कल्पनाओं को भी उकेरा होगा लेकिन इस तथ्य को कोई नहीं बदल  सकता कि मुगल आक्रांताओं की नजर हिन्दू राजाओं की रानियों पर रहती थी। 
 
ये दरअसल, इन घटिया आक्रांताओं की हवस मात्र नहीं बल्कि किसी राजा और उसकी प्रजा को  नीचा दिखाने की एक राजनीतिक साजिश भी होती थी। मेवाड़ के महाराज रावल रतनसिंह की  15 रानियां थीं जिनमें सबसे छोटी पद्मावती थीं। वो अत्यंत रूपवान थीं और अलाउद्दीन खिलजी  ने मेवाड़ की प्रजा के मानस को छलनी करने के लिए उन पर कुदृष्टि डालने का असफल  प्रयास भी किया था। अन्य गरिमामयी रानियों की तरह उन्होंने भी प्रजा का मान रखने के लिए  जौहर कर लिया था। ये एक ऐसा काला इतिहास है, जो खिलजी के किसी वंशज को आज भी  पचता नहीं है। ये इतिहास बताता है कि ये आक्रांता किस घटिया मानसिकता के साथ हमारे  पवित्र देश में आए थे।
 
जायसी ने बेशक पद्मावती के रूप पर पूरा साहित्य लिख दिया। इसमें उनकी कल्पनाएं भी हो  सकती हैं लेकिन कुछ तथ्य ऐसे हैं जिन्हें वो भी नहीं बदल सकते थे। इन सब तथ्यों में सबसे  महत्वपूर्ण ये है कि रानी पद्मावती एक शौर्यवान और गरिमामयी रानी थीं जिनके लिए सम्मान  उनके प्राणों से भी बढ़कर था। हमारे इस गौरवपूर्ण इतिहास को कोई मूर्ख अपने क्षुद्र स्वार्थों के  लिए कल्पना कहे तो किसे बर्दाश्त होगा? 
 
आज इतिहास को कल्पना की तरह दिखाने वाले भी प्रयोग कर सकते हैं लेकिन मूल तथ्यों के  साथ छेड़छाड़ कोई नहीं कर सकता। यदि किसी रचना में खिलजी को हीरो दिखाया जाएगा तो  ये नाकाबिल-ए-बर्दाश्त ही होगा। ऐसा है या नहीं, ये कहना तो मुश्किल है लेकिन फिल्म में लीड  हीरो के तौर पर लिया गया किरदार यदि रावल रतनसिंह न होकर खिलजी है तो ये इतिहास से  खिलवाड़ ही है। ऐसे किसी भी प्रयास का विरोध होना ही चाहिए, क्योंकि ये मुगलकालीन घटिया  इतिहासकारों की परंपरा को आगे बढ़ाने का ही एक प्रयास है। यहां भी फिल्म को हिट कराने  जैसे क्षुद्र मंतव्य के अलावा और कोई कलात्मक पहलू दिखाई नहीं पड़ता।

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