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अब खत नहीं, बीमारी लाते हैं कबूतर!

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, गुरुवार, 8 दिसंबर 2016 (19:19 IST)
नई दिल्ली। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हजारों लोगों की जान बचाने वाले 'डाकिया कबूतर' संदेश पहुंचाने में माहिर होने के साथ कई गंभीर बीमारियों के संवाहक भी हैं। इनसे अधिक' प्यार-दुलार' खतरनाक हो सकता है। 
कबूतर आ, आ, आ कहकर उन्हें दाना डालने और बालकनी के किसी कोने में लगे घोंसलों को शुभ मानकर अपने करीब 'फलने-फूलने' देने से अथवा न चाहने पर भी उनका प्राय: घरों के आसपास डेरा जमाए रहने से दमा, एलर्जी, फेफड़े और सांस से संबंधित करीब 60 प्रकार की बीमारियों की चपेट में लोग आ सकते हैं। सतर्कता नहीं बरतने पर कबूतरों की बीट और हवा में फैले उनके' माइक्रोफेदर्स' से जानलेवा बीमारियां भी हो सकती हैं। 
 
दिल्ली विश्वविद्यालय के कैंपस में स्थित वल्लभभाई पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट के नेशनल सेंटर ऑफ रेस्पेरेटरी एलर्जी के प्रमुख डॉ. राजकुमार ने विशेष बातचीत में गुरुवार को कहा कि हम लोगों की धार्मिक भावनाओं का पूरा सम्मान करते हैं। कबूतरों को दाना डालना और उनसे 'दोस्ताना' रहना दोनों अलग-अलग बातें हैं। 
 
हम कबूतरों और उनके ठिकानों से दूरी बनाकर अपनी भावनाओं को आहत किए बगैर अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर सकते हैं। लोगों की प्रतिरोधक क्षमता अलग-अलग होती है और यह नहीं मालूम कि किस स्थिति में किसको किस चीज से एलर्जी हो सकती है। कोई भी बीमारी सभी लोगों को नहीं होती लेकिन यह जान लेना आवश्यक है कि सुरक्षा बरतने पर गंभीर बीमारियों से बचा जा सकता है। 
 
उन्होंने कहा कि हमारे अस्पताल में किए गए एक अध्ययन में साबित हुआ है कि कबूतर की बीट से 'हाइपर सेंसिटिव निमोनाइटिस' होता है। इससे लोगों में दमा, खांसी, सांस फूलने की समस्या की शिकायत होती है। समय से पहचान और इलाज नहीं होने पर इंसान में यह स्थिति घातक सिद्ध हो सकती है।
 
कबूतर की बीट से होने वाली एलर्जी पर अब तक विदेशों में ही अध्ययन किया गया था, लेकिन हमारे यहां की एंटीजन जांच में भी कुछ मरीजों में एलर्जी के लक्षण पाए गए। कबूतरों के पंख से निकलने वाले 'फीदर डस्ट' मनुष्यों में अति संवेदनशील निमोनिया या बर्ड फैंसियर्स लंग्स की बीमारी बढ़ा रहे हैं। दिल्ली के प्रमुख चौराहों पर जमा बीट से होने वाली एलर्जी का असर 100 मीटर के दायरे तक गुजरने वाले लोगों पर पड़ सकता है। कबूतर की बीट से होने वाली एलर्जी पर किया गया शोध इंडियन जर्नल ऑफ इम्यूनोलॉजी में भी प्रकाशित किया गया है। 
 
डॉ. राजकुमार ने बताया कि कबूतरों की बीट से फेफड़े की बीमारी का खतरा होता है इसलिए लोगों को इसके बारे में जानना जरूरी है। धूल, प्रदूषण, कबूतर और कीड़ों की बीट आदि से अलग-अलग तरह के 200 से अधिक प्रकार की एलर्जी होती है। अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो यह अस्थमा का कारण बन सकती है। दिल्ली के 30 फीसदी लोग किसी न किसी एलर्जी से जूझ रहे हैं। पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन में यह बात सामने आई भी है। 
 
नोएडा के जेपी अस्पताल के रेसपिरेटरी एडं क्रिटिक केयर मेडिसिन विभाग के डॉ. ज्ञानेन्द्र अग्रवाल ने कहा कि एलर्जी लोगों की सेंसिविटी पर निर्भर करती है। कुछ लोग अतिसंवेदनशील निमोनिया या बर्ड फैंसियर्स लंग्स की बीमारी के लिए सेंसिटिव हो सकते हैं। उन्हें हाइपरसेंसिटिव निमोनाइटिस, अस्थमा आदि बीमारियां हो सकती हैं। इसमें लोगों में खांसी, कफ, लंबे समय तक दम फूलने की शिकायत होती है।
 
उन्होंने कहा कि समय पर उचित इलाज नहीं मिलने से फेफड़े को काफी नुकसान पहुंचता है और यह जानलेवा भी हो सकता है। डॉ. अग्रवाल ने कहा कि लोगों को कबूतरों के सीधे संपर्क से बचना चाहिए और ग्लोब और मास्क पहनकर बीट को तुरंत साफ कर देना चाहिए, क्योंकि इसमें एलर्जी पैदा करने वाले माइक्रोपार्टिकल्स होते हैं, जो बीट के सूखने पर हवा के संपर्क में आकर लोगों तक पहुंच सकते हैं।
 
कर्नाटक के वेटरनेरी, एनिमल एंड फिशरीज यूनिवर्सिटी के वेटरनेरी माक्रोबायोलॉजिस्ट के अनुसार पक्षियों, खासकर कबूतर की बीट में पाए जाने वाले असंख्य रोगाणुओं से इंसान को कम से कम 60 प्रकार की बीमारियां हो सकती हैं। 
 
कबूतरों की बीट से इंसान के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव के बारे में जागरूकता अभियान चलाने वाले प्रोफेसर डॉ. केएम चन्द्रशेखर के अनुसार जहां कबूतरों की बीट एकत्र होती है वहां पर्यावरण में फ्ली, टिक्स, पैरासाइट आदि फैलते हैं। 
 
इंसान इनके सीधे संपर्क में आने पर कई प्रकार की बीमारियों की चपेट में आ सकता है। बीट को एलर्जी उत्पन्न करने वाला बेहद तीव्र पदार्थ माना जाता है। इसके संपर्क में आने से फेफड़ों में गंभीर सूजन हो सकती है। डॉक्टर सामान्य परिस्थिति में इसे आम निमोनिया समझ लेते हैं जबकि यह बीट से होने वाला अतिसंवेदनशील निमोनिया होता है।
 
उन्होंने कहा कि कबूतर मकानों में एसी लगाने के स्थानों और पाइपों पर अपना ठिकाना बनाते हैं। दाना चुगने के बाद वे वहीं बैठते हैं। उनके पंखों से निकले कण एसी के जरिए घरों में तक पहुंते हैं।
 
पिछले साल हुए एक अध्ययन में यह बात सामने आई कि जागरूकता के अभाव में लोग इलाज में 4-4 साल तक की देरी कर चुके होते हैं। पक्षियों के पंख से निकलने वाले छोटे-छोटे अंश फेफड़ों को धीरे-धीरे जाम कर देते हैं जिससे सांस लेने में दिक्कत होने लगती है। जो लोग इनके नजदीक रहते हैं उन्हें मास्क लगाकर रहना चाहिए। घर के आस-पास कबूतरों को दाना डालने से बचना चाहिए।
 
हाल ही में पुणे के पीजीआई के पल्मोनरी विभाग में अलीगंज की एक महिला को कबूतर की बीट की वजह से फेफड़े में संक्रमण का मामला सामने आया था। ओपन लंग्स बायोप्सी में'हाइपरसेंसटिविटी न्यूमोनाइटिस' संक्रमण पता चला। महिला के अनुसार उसके घर की छत पर कबूतरों ने घोंसला बना लिया था। करीब 2 महीने बाद उसे खांसी, सांस लेने में तकलीफ और छाती में दर्द होने लगा। सीटी स्कैन में 'हाइपरसेंसटीविटी न्यूमोनाइटिस' का पता चला।
 
अस्पताल के चेयरमैन डॉ. आलोक नाथ के अनुसार बायोप्सी करवाने पर पता चला कि कबूतर की बीट में पाए जाने वाले एलर्जिक माइक्रोपार्टिकल्स से महिला को यह बीमारी हुई। एक अन्य मामले में इकोलॉजिकल सोसायटी के एक अध्ययन के कबूतरों को दाना खिलाने के शौकीन एक व्यक्ति को फेफड़ों में संक्रमण के कारण वेन्टिलेटर पर रखा गया।
 
फेफड़ा रोग विशेषज्ञ डॉ. महावीर मोदी ने बताया कि पॉश इलाकों में रहने वाले लोग भी कबूतरों के अवशेषों और उनके टूटते पंखों की वजह से गंभीर बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। उनमें से ज्यादातर लोगों को पहले कफ की शिकायत होती है जिसके लक्षण अस्थमा जैसे होते हैं इसलिए इसकी पहचान करना काफी मुश्किल होता है। कई मरीजों को निमोनिया जैसे लक्षण होते हैं। मरीजों पर दवाओं का असर नहीं होता। कुछ मामलों में मरीजों को आईसीयू में भर्ती तक करना पड़ता है।
 
उल्लेखनीय है कि 'संदेशवाहक कबूतर' और इंसान का संबंध का इतिहास बहुत दिलचस्प रहा है। स्वास्थ्य कारणों को देखते हुए उनके सीधा संपर्क से बचकर इस अनूठे रिश्ते को 'जीवित' रखा जा सकता है। ईसा से 3,000 पूर्व मेसोपोटामिया (आधुनिक इराक) में पुराविदों को कबूतरों के बारे में जानकारी मिली थी।
 
चौंकाने वाली बात यह है कि समाचार एजेंसी रायटर्स ने वर्ष 1850 में अपनी सेवाएं शुरू की तो उसने 45 कबूतरों को भी 'रिपोर्टर' बनाया था। वे जर्मनी के आतेन से बेल्जियम के ब्रुसेल्स तक ताजा समाचार पहुंचाने और शेयर भाव की सूचना देने का काम करते थे। 
 
हालांकि दोनों देशों के बीच टेलीग्राफ सेवा थी लेकिन तकनीकी खामियों के कारण सूचनाओं के आदान-प्रदान में विलंब होता था। कबूतर रिकॉर्ड 2 घंटे में 76 मील की दूरी तय करते थे। वे यह सफर ट्रेन से 4 घंटा पहले तय कर लेते थे। कबूतरों की गति विमान की गति से मात्र 40 प्रतिशत की कम होती है।
 
कबूतर सूर्य की दिशा, गंध और पृथ्वी के चुम्बकत्व से वापस लौटने की दिशा तय करते हैं। टेलीग्राफ, टेलीफोन और संदेश पहुंचाने की नई व्यवस्थाओं के साथ 'कबूतर डाकिया' सेवा पर विराम लग गया। (वार्ता)


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