असम जल रहा है, असमी सड़कों पर उतर आए हैं। गुवाहाटी से लेकर जोरहाट तक 'जय अखम' और 'CAB आमी ना मानू' के गगनभेदी नारों का शोर और पुलिस की गोलियों की गूंज प्रदेश में फैले असंतोष और आक्रोश को बयान कर रहा है।
असम में जातीय हिंसा का एक लंबा इतिहास रहा है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे पर तो अक्सर असम में जातीय हिंसा के मामले सामने आते रहे हैं, लेकिन इस बार असम के लोग हिन्दू-मुस्लिम के मुद्दे पर नहीं लड़ रहे, वह संविधान के लिए भी नहीं लड़ रहे, वह सिर्फ अपने संसाधनों और संस्कृति की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं।
दरअसल 1985 में जो असम समझौता हुआ था उसके तहत असम के लोगों की सामाजिक-सांस्कृतिक और भाषाई पहचान को पहचान और सुरक्षा मिली थी। पर अब असम के स्थानीय निवासियों का मानना है कि 1985 के असम समझौते का उल्लंघन है यह नागरिक संशोधन बिल।
जय अखम (जय असम) और कैब आमी ना मानू (कैब को हम नहीं मानते) के नारे ने यहां जोर पकड़ लिया है। यह असमी लोगों की स्वस्फूर्त प्रतिक्रिया है। NRC की जयकार करने वाले असमियों को CAB उनके हितों-हक पर आघात करते दिख रहा है, इसलिए इस मुद्दे पर भाजपा को वोट देने वाले लोगों के आक्रोश को सड़क तक आते देर नहीं लगी।
2019 में केंद्र में भाजपा को मिली शानदार जीत के बाद एनआरसी का यहां स्वागत हुआ था लेकिन अब मसला इसके बिलकुल उलट हो गया है। नागरिक संशोधन बिल को लेकर असम में अब इतना गुस्सा है कि NRC से लोकप्रिय हुए अमित शाह को भी अपना प्रस्तावित दौरा रद्द करना पड़ा है।
यहीं नहीं भारत और जापान के बीच गुवाहाटी में होने वाला शिखर सम्मेलन जिसमें प्रधानमंत्री मोदी और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे शिरकत करने वाले थे, अब स्थगित कर दिया गया है।
पूर्वोत्तर भारत के स्थानीय पत्रकार और शिक्षाविद मानते हैं कि यहां स्थानीय लोगों और प्रवासियों के बीच मुख्य लड़ाई रोजगार की हो गई है। उनका यह भी मानना है कि धार्मिक आधार पर उत्पीड़न जितना पाकिस्तान और अफगानिस्तान में होता है वैसा बांग्लादेश में नहीं है।
बांग्लादेश में इस्लाम का स्वरूप अपेक्षाकृत सॉफ्ट माना जाता है, लेकिन वहां भी अल्पसंख्यक प्रताड़ना का शिकार हैं। पाकिस्तान की तुलना में यह काफी कम है। हालांकि यह भी माना जाता है कि गैर मुस्लिमों के बांग्लादेश से पलायन की बड़ी वजह भारत में रोजगार के बेहतर अवसर पाना है।
आंकड़ों पर गौर करें तो 1971 में जब पाकिस्तान का विभाजन हुआ था और एक हिस्सा बांग्लादेश बना तो उस समय वहां करीब 22 फीसदी अल्पसंख्यक थे, जबकि अब करीब 9.6 फीसदी हैं। कह सकते हैं कि 4 दशकों में बांग्लादेश में अल्संख्यकों की आबादी में करीब 12 फीसदी की गिरावट आ चुकी है।
बांग्लादेश से पलायन करने वाले यह लोग बड़े पैमाने पर पूर्वोत्तर भारत में बसे हुए हैं। ...और यही बांग्लादेशी शरणार्थी और घुसपैठिए असमी लोगों के विरोध की बड़ी वजह हैं। उनका मानना है कि इनको नागरिकता मिलती है तो असम का क्षेत्रीय स्वरूप ही बदल जाएगा।