भारतीय शास्त्रीय संगीत के महान गायक पंडित भीमसेन जोशी को उनके सुरों के लिए हमेशा याद रखा जाएगा। उन्हें खासतौर से भजन और अभंग के लिए याद किया जाएगा। हालांकि वे एक ऐसी आवाज थे जिसने भक्ति संगीत को दुनिया की कई सीमाओं के पार पहुंचाया।
किराना घराने के इस विश्व विख्यात गायक और भारत रत्न का जन्म 4 फरवरी 1922 को कर्नाटक के गडक शहर के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
उनके पिता गुरुराज जोशी एक स्कूल शिक्षक थे। पंडित जोशी को बचपन से ही संगीत का बहुत शौक था और वे किराना घराने के संस्थापक अब्दुल करीम खान से बहुत प्रभावित थे।
गुरु की तलाश में 1936 में पंडित भीमसेन जोशी ने जाने-माने खयाल गायक और अब्दुल करीम खान के शिष्य सवाई गंधर्व पंडित रामभन कुंडगोलकर से गडग के नजदीक कुंडगोल में संगीत की विभिन्न विधाओं का प्रशिक्षण लिया।
वहां उन्होंने सवाई गंधर्व से कई वर्षों तक खयाल गायकी की बारीकियां भी सीखीं। पंडित भीमसेन जोशी ने अपनी विशिष्ट शैली विकसित करके किराना घराने को समृद्ध किया और दूसरे घरानों की विशिष्टताओं को भी अपने गायन में समाहित किया।
जनवरी, 1946 में पुणे में एक कंसर्ट से उन्हें पहचान मिली। दरअसल, यह उनके गुरू स्वामी गंधर्व के 60वें जन्मदिन के मौके पर आयोजित एक समारोह था। उनकी ओजस्वी वाणी, सांस पर अद्भुत नियंत्रण और संगीत की गहरी समझ उन्हें दूसरे गायकों से पूरी तरह अलग करती थी।
साल 1943 में उन्होंने मुंबई का रुख किया और बतौर रेडियो आर्टिस्ट काम किया। महज 22 साल की उम्र में उनका पहला एलबम आया। संगीत की दुनिया में तो उन्होंने एक से एक कीर्तिमान स्थापित किए लेकिन 1985 में बने वीडियो मिले सुर मेरा तु्म्हारा की वजह से तो वो भारत के हर घर में पहचाने जाने लगे।
पंडित जोशी को लोग गीत पिया मिलन की आस, जो भजे हरि को सदा और मिले सुर मेरा तुम्हारा आदि के लिए याद करते हैं।
1972 में उन्हें पद्म श्री से नवाज़ा गया और उसके बाद से पुरस्कार मिलने का सिलसिला जारी रहा। भीमसेन जोशी को पद्मश्री (1972), संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1976), पद्म भूषण (1985) और पद्म विभूषण (1999) जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। 2008 में उन्हें सरकार की तरफ से भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया।