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सोनिया गांधी के जन्मदिन पर मोदी ने की लंबी उम्र की कामना

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, शनिवार, 10 दिसंबर 2016 (00:26 IST)
नई दिल्ली। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने शुक्रवार को अपनी उम्र के 70 बरस पूरे कर लिए। इस अवसर पर विभिन्न पार्टियों के नेताओं ने उन्हें जन्मदिन की मुबारकबाद दी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सोनिया को उनके जन्मदिन पर मुबारकबाद देते हुए उनकी अच्छी सेहत और लंबी उम्र की कामना की।
मोदी ने अपने ट्वीट संदेश में कहा, ‘श्रीमती सोनिया गांधी को जन्मदिन की शुभकामनाएं। ईश्वर उन्हें अच्छी सेहत से भरपूर लंबी उम्र दे।'  पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद, लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडगे के साथ ही वरिष्ठ कांग्रेस नेता एके एंटनी, पी. चिदंबरम, अहमद पटेल, अंबिका सोनी, मोतीलाल वोरा, और सुशील कुमार शिंदे समेत शीर्ष कांग्रेस नेताओं ने सोनिया को उनके 10 जनपथ निवास पर शुभकामनाएं दीं।
 
इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में एआईसीसी महासचिव जनार्दन द्विवेदी, दिग्विजय सिंह, कमल नाथ, सीपी जोशी, मधुसुदन मिस्त्री और अन्य अहम नेता मौजूद थे। जिन नेताओं ने सोनिया को शुभकामनाएं दीं, उनमें महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह शामिल थे।

साधारण सी लड़की के भारत के सबसे बड़े राजनीतिक घराने की बहू : इटली के एक छोटे से गांव की एक साधारण सी लड़की के भारत के सबसे बड़े राजनीतिक घराने की बहू बनने की कहानी किसी परी कथा से कम नहीं है। सोनिया एंटोनिया मायनो का इस देश से रिश्ता एक रोमांस से शुरू हुआ था। तीन बेटियों में दूसरी सोनिया, पाओला और स्टेफानो के घर इटली के ट्यूरिन शहर के बाहरी इलाके ओरबैसानो में पैदा हुई थीं। पिता ने बेटियों को बिल्कुल पारंपरिक ढंग से पाला पोसा। रोकटोक के बावजूद सोनिया के पिता आधुनिक सोच रखते थे और उन्हें विदेश में पढ़ने की इजाजत मिल गई। सोनिया को अंग्रेजी सिखनी थी जिसके लिए उन्होंने अपने पिता से इंग्लैंड जाने की इजाजत मांगी।
 
राजीव-सोनिया की पहली मुलाकात : सोनिया ने मैजिनी और गैरीबाल्डी को पढ़ा और इटली के एक होने की जानकारी हासिल की, लेकिन आधुनिक देश के बतौर भारत के उदय के बारे में उनको कुछ नहीं पता था। शायद सोनिया की किस्मत में हिंदुस्तान की खोज किसी और ढंग से होनी लिखी थी। कैंब्रिज के एक ग्रीक रेस्टोरेंट वार्सिटी में दोपहर को छात्र खाने-पीने पहुंचते थे। वार्सिटी का मालिक चार्ल्स एंटोनी राजीव गांधी का गहरा दोस्त था। सोनिया और राजीव की पहली मुलाकात भी इसी रेस्टोरेंट में हुआ था।
 
चार्ल्स एंटोनी बताते हैं कि एक दिन सोनिया आईं, वो अकेली थीं। ये लंच का वक्त था और मेरे पास उनको बैठाने के लिए कोई जगह नहीं थी। राजीव अपने दोस्त एलेक्सिस के इंतजार में राउंड टेबल पर अकेले बैठे थे सो मैंने राजीव से पूछा कि तुम्हें किसी दूसरे और एक लड़की के साथ बैठने में ऐतराज तो नहीं। राजीव ने कहा-नहीं, बिल्कुल नहीं। आपको यकीन नहीं आएगा, लेकिन उन्हें एक दूसरे से प्यार हो गया। वो भी इस तरह कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता था। मैं इसके लिए राजीव को दोष नहीं देता, वो खुद ही इतनी सुंदर थीं।
 
एक प्रेम कहानी की शुरुआत : राजीव और सोनिया का रिश्ता इसी रेस्टोरेंट से शुरू से हुआ, जो एक अटूट बंधन में बंध गया। हर प्रेम कहानी की तरह राजीव और सोनिया की जिंदगी में भी कई उतार-चढ़ाव आए। दोनों ने जब शादी का फैसला किया तो उनके परिवारों के लिए इस फैसले को मानना आसान नहीं था। राजीव जहां भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेटे थे, तो वहीं सोनिया एक साधारण से परिवार की लड़की थी।
 
सोनिया के पिता को ये रिश्ता कतई मंजूर नहीं था, अपनी प्यारी सी बेटी एक अलग देश में भेजना नहीं चाहते थे। उनको इस बात का डर था कि भारत के लोग सोनिया को कभी स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन सोनिया और राजीव के प्यार के आगे सबको झुकना पड़ा और आखिर राजीव से मिलने के बाद सोनिया के पिता ने शादी के लिए हामी भर दी।
 
1968 में पहली बार भारत आईं सोनिया : शादी से पहले सोनिया को भारत आना था। इंदिरा उस वक्त प्रधानमंत्री थीं, इसलिए बिना शादी के सोनिय़ा को अपने घर में नहीं रख सकती थी, इसलिए सोनिया के लिए अमिताभ बच्चन के घर में रहने की व्यवस्था की गई। उस वक्त अमिताभ और राजीव जिगरी दोस्त हुआ करते थे। 13 जनवरी 1968 को सोनिया दिल्ली पहुंचीं और अमिताभ के घर में रहने लगीं, जहां उन्हें भारतीय रिति रिवाजों को जानने का मौका मिला।
 
1968 में अमिताभ के घर में हुई सोनिया और राजीव की शादी : नयनतारा सहगल बताती हैं कि मुझे उनकी पहली याद तब की है जब इंदिरा ने मेरी मां को बुलाया और कहा फूफी, राजीव एक इटैलियन लड़की से प्यार करता है तो मेरी मां ने कहा- ये तो बहुत अच्छी बात है। हम उससे कब मिलेंगे। जब वो भारत से गईं तो मैं उनसे पहली बार तब मिली जब उनकी मेहंदी की रस्म थी। तब वो बच्चन परिवार के साथ थीं और वहीं उनकी मेहंदी रस्म रखी गई थी। उनके पैरों और हाथों पर मेहंदी रचाई गई और इसके बाद हमने साथ खाना खाया।
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सोनिया और राजीव ने जो जिंदगी चुनी थी वो उनकी निजी जिंदगी थी। दोनों के चारों तरफ ऐसे लोग थे जिनके लिए विचारधारा, विश्वास और शासन जैसी चीजें रोजमर्रा की बातें थीं। सोनिया को अचानक लोगों के सामने न आना और गलत बातों पर एकदम न बोलना सीखना पड़ा। अपनी सास से उनका रिश्ता प्यार, धीरज और साझेदारी का था, लेकिन सोनिया ने इंदिरा के साथ कभी एक चीज की साझेदारी नहीं की और वो थी राजनीति।
 
राजनीति में नहीं आना चाहती थीं सोनिया : सोनिया और राजीव की जिंदगी के शुरुआती 13 साल कई सियासी उतार-चढ़ावों से होकर गुजरे क्योंकि पूरा परिवार एक के बाद एक दुखद घटनाओं से जूझ रहा था। पहले विमान दुर्घटना में संजय गांधी की मौत, उसके बाद इंदिरा गांधी की हत्या और सात साल बाद खुद राजीव गांधी की हत्या। हर बार सोनिया को शिद्दत से ये एहसास हो रहा था कि ये राजनीति ही थी जो राजीव और उनकी जिंदगी की दुश्मन साबित हुई थी, पर विकल्प कोई नहीं था। बाद के सालों ने दिखाया कि विदेश में पैदा हुई ये गांधी अपनी जिंदगी और इस देश की सियासत की किताब नए सिरे से लिखने को तैयार हो रही थी। उनकी भावना की तुलना बाद में उन्हें मिली फतह से की जा सकती है।
 
2004 में कांग्रेस को दिलाई जीत : साल 2004 में बीजेपी ने सोनिया की ताकत को अनदेखा किया था और अब बीजेपी के सामने ही सोनिया एक खास अंदाज में अपने लिए लिखे भाषण पढ़कर उस भारत तक पहुंच रही थीं जो उतना चमकदार नहीं था जितना दावा किया जा रहा था। सोनिया की लगातार एक ही कोशिश थी कि कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए सहयोगी मिल जाएं। पुराने दुश्मन अब दोस्त का दर्जा पा गए थे। कुछ जातियों और समुदायों में सोनिया ने भी अपनी पैठ बना ली थी अचानक सोनिया एम करुणानिधि, वायको, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान जैसे नेताओं की भी पसंद बन गई थीं।
 
रशिद किदवई बताते है कि वो कोई डील नहीं कर रही थीं। उनके पास जो था वो बस उनकी ईमानदारी थी। हरकिशन सिंह सुरजीत से उनकी काफी बनती थी। एक बार वो सुरजीत के घर भी गई थीं। गर्मियों के दिन थे। सुरजीत ने कहा कि उनके घर में अंदर के कमरे में एक एयरकंडिश्नर है तो क्या तुम अंदर जा सकती हो और सोनिया तुरंत चली गईं। जिस कुर्सी पर वो बैठीं वो टूटी हुई थी। सोनिया ने उस पर तकिया रखा और बैठकर बातचीत करती रहीं। तब से सुरजीत से सोनिया की अच्छी दोस्ती हो गई और याद रखें कि ये कोई राजनीतिक दोस्ती नहीं थी, जिसके लिए वो पांच साल से मोलतोल कर रही थीं।
 
जब सोनिया ने छोड़ा पीएम का पद : 2004 चुनावों ने दिखाया कि दांव पर क्या लगा था। कांग्रेस का अस्तित्व ही नहीं बल्कि भारत की राजनीति में शायद एक गांधी की औकात भी दांव पर लगी थी। देश ने कांग्रेस को चुना और कांग्रेस ने सोनिया को और सोनिया ने उस शख्स को चुना जो सियासतदान कम था वफादार ज्यादा। उनके घर के बाहर कांग्रेसियों का हुजूम लग गया। पर सोनिया की तरफ से न हो चुकी थी।
 
सोनिया के त्याग की कहानी देशभर में टेलीकास्ट हुई। सत्ता त्यागकर सोनिया और भी ताकतवर बन गई थीं। कांग्रेसियों की चापलूसी ने सारी हदें पार कर दीं। उन्होंने उनकी मिन्नतें कीं। उनके सामने रोए-गिड़गिड़ाए भी। सरकार में पार्टी के सहयोगियों ने भी उनके आगे हाथ जोड़े। यहां तक कि बीजेपी ने भी माना कि ये सोनिया का मास्टरस्ट्रोक था।
 
ये उस नेता की कामयाबी थी, जिसे 1999 में सियासत का नौसिखिया कहा जाता था। राष्ट्रपति भवन के सामने कभी न भूलने वाली वो प्रेस कांफ्रेंस जब सोनिया ने जादुई आंकड़ों का ऐलान किया और कहा कि हमें यकीन है कि हमें 272 सीटें मिलेंगी। चुनाव अभियान का कर्ताधर्ता गलती कर सकता था, पर संसद में पार्टी प्रमुख के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी। पता चला कि आंकड़ा 272 तक नहीं पहुंच पाया और 40 कम है तो चुनाव मजबूरी बन गए और सोनिया ने पाया कि उनके लिए अब अपनी छवि बनाए रखना बहुत जरूरी था। सोनिया से दोबारा गलती नहीं हुई। अब उन्होंने अपनी हर रुकावट को अपने फायदे में बदलना शुरू कर दिया। इस हद तक कि उनके विरोधी भी चौंक जाते थे।
 
कांग्रेस में जान फूंकी : राष्ट्रपति चुनाव, लाभ के पद के संकट और न्यूक्लियर करार पर तकरार जैसे जोखिम से गुजरकर सोनिया सत्ता में भागीदारी की कला अच्छी तरह जान गई थीं। एक सर्वशक्तिमान नेता और एक आज्ञाकारी प्रधानमंत्री के गठबंधन ने सत्ता में भागीदारी की नई परंपरा को जन्म दिया। सोनिया पार्टी के लिए जिम्मेदार थीं तो मनमोहन सरकार के लिए। ऐसी हिस्सेदारी पहले नहीं देखी गई थी फिर भी बहुत से लोग कहते हैं कि सत्ता सिर्फ सोनिया के पास ही रहती थी।
 
सोनिया ने बार-बार सरकार का फोकस आम आदमी की तरफ मोड़ने की कोशिश की। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना, सूचना का अधिकार अधिनियम ये सभी तब आए जब 2006 तक वो नेशनल एडवाइजरी काउंसिल की अध्यक्ष थीं। इधर, दो साल से कम वक्त में दूसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष फिर बाहर निकलीं और अपने पारिवारिक गढ़ रायबरेली में चुनावी समर के लिए वापस लौटीं।
 
2009 में कांग्रेस को फिर दिलाई जीत : 2009 में सोनिया और राहुल ने देश के दूसरे हिस्सों पर भी ध्यान देना शुरू किया। बेशक दोनों देश के दूसरे इलाकों का दौरा करके पार्टी की नींव मजबूत करने में लगे हों, लेकिन रायबरेली और अमेठी में तो मानो जीत गांधी परिवार के खाते में पहले से ही लिख दी गई है।
 
साल 2013 के बाद एक के बाद एक हुए चुनावों में पार्टी की हार से नेहरू-गांधी की जमीन धीरे-धीरे उनके पैरों से खिसकने लगी। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की पकड़ कमजोर पड़ गई और देश की जनता ने उसे नकार दिया एनडीए को जहां एक ओर भारी बहुमत मिला वहीं कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गई, ये कांग्रेस के लिए बेहद शर्मनाक हार थी, लगने लगा कि अब कांग्रेस के लिए दोबारा उभरना आसान नहीं होगा, लेकिन एक बार फिर सोनिया गांधी ने पार्टी को हार से उभारने के लिए पूरी तरह एक्टिव हो गई हैं। गिरती सेहत के बावजूद सोनिया आज भा कांग्रेस की ढाल बनकर खड़ी हैं। (एजेंसी एवं न्यूज18 इंडिया से साभार) 


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