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मंगल पर भवन-निर्माण के लिए ‘अंतरिक्ष ईंट’

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, गुरुवार, 21 अप्रैल 2022 (12:39 IST)
नई दिल्ली, मंगल पर भविष्य में बस्तियां बसाने और लाल ग्रह पर निर्माण की संभावनाओं की तलाश में दुनियाभर के वैज्ञानिक जुटे हुए हैं। इस दिशा में कार्य करते हुए भारतीय वैज्ञानिकों को एक नयी सफलता मिली है।

वैज्ञानिकों ने मंगल पर बस्तियां बसाने में उपयोगी ‘अंतरिक्ष ईंट’ बनाने के लिए बैक्टीरिया आधारित एक विशिष्ट तकनीक विकसित की है, जिसका उपयोग बड़े पैमाने पर इस तरह की ईंट बनाने में हो सकता है।

बेंगलूरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के वैज्ञानिकों ने ‘अंतरिक्ष ईंट’ बनाने के लिए मंगल की सिमुलेंट सॉयल (एमएसएस) यानी प्रतिकृति मिट्टी और यूरिया का उपयोग किया है।

इन ‘अंतरिक्ष ईंटों’ का उपयोग मंगल ग्रह पर भवन जैसी संरचनाओं के निर्माण के लिए किया जा सकता है, जो लाल ग्रह पर मानव को बसने की सुविधा प्रदान कर सकते हैं। आईआईएससी के वक्तव्य में यह जानकारी प्रदान की गई है।

इन ‘अंतरिक्ष ईंटों’ को बनाने की विधि को शोध पत्रिका प्लॉस वन में प्रकाशित एक अध्ययन में रेखांकित किया गया है। सबसे पहले मंगल की मिट्टी को ग्वार गम, स्पोरोसारसीना पेस्टुरी (Sporosarcina pasteurii) नामक बैक्टीरिया, यूरिया, और निकल क्लोराइड (NiCl2) के साथ मिलाकर एक घोल बनाया जाता है।

इस घोल को किसी भी आकार के सांचों में डाला जा सकता है, और कुछ दिनों में बैक्टीरिया; यूरिया को कैल्शियम कार्बोनेट के क्रिस्टल में बदल देते हैं। ये क्रिस्टल, बैक्टीरिया द्वारा स्रावित बायोपॉलिमर के साथ, मिट्टी के कणों को एक साथ बाँधे रखने वाले सीमेंट के रूप में कार्य करते हैं।

इस पद्धति का एक लाभ ईंटों की कम सरंध्रता है, जिसे अन्य तरीकों से प्राप्त करना समस्या रही है, जो कि मंगल की मिट्टी को ईंटों में समेकित करने के लिए उपयोग की जाती है।

आईआईएससी में मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर और इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता आलोक कुमार कहते हैं, "बैक्टीरिया अपने स्वयं के प्रोटीन का उपयोग करके कणों को एक साथ बांधते हैं, संरध्रता को कम करते हैं, और मजबूत ईंटों का निर्माण करने में मदद करते हैं।"

शोधकर्ताओं ने इसी तरह की विधि का उपयोग करके, चांद की मिट्टी से ईंटें बनाने पर काम किया था। हालांकि, पिछली विधि केवल बेलनाकार ईंटों का उत्पादन कर सकती थी, जबकि वर्तमान स्लरी-कास्टिंग विधि जटिल आकार की ईंटों का उत्पादन भी कर सकती है।

स्लरी-कास्टिंग विधि को आईआईएससी के मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग में सहायक प्रोफेसर कौशिक विश्वनाथन की मदद से विकसित किया गया है, जिनकी प्रयोगशाला उन्नत विनिर्माण प्रक्रियाओं पर काम करती है।

प्रोफेसर कुमार बताते हैं कि ‘मंगल ग्रह की मिट्टी का इस विधि में उपयोग करना चुनौतीपूर्ण था, क्योंकि लाल ग्रह की मिट्टी में बहुत अधिक आयरन होता है, जो जीवों के लिए विषाक्तता का कारण बनता है। आरंभ में बैक्टीरिया बिल्कुल नहीं पनपते थे। मिट्टी को बैक्टीरिया के लिए अनुकूल बनाने के लिए निकल क्लोराइड जोड़ना महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ’

शोधकर्ताओं की योजना मंगल के वायुमंडल और कम गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव की जांच ‘अंतरिक्ष ईंटों’ की मजबूती पर करने की है। मंगल ग्रह का वातावरण पृथ्वी के वायुमंडल की तुलना में 100 गुना पतला है, और इसमें 95% से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड है, जो बैक्टीरिया के विकास को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकता है।

शोधकर्ताओं ने मार्स (मार्शियन एटमॉस्फियर सिमुलेटर) नामक एक उपकरण का निर्माण किया है, जिसमें एक कक्ष होता है, जो प्रयोगशाला में मंगल ग्रह पर पायी जाने वाली वायुमंडलीय स्थितियों को उत्पन्न करता है।
शोधकर्ताओं ने एक लैब-ऑन-ए-चिप डिवाइस भी विकसित किया है, जिसका उद्देश्य सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण स्थितियों में जीवाणु गतिविधि को मापना है।

आईआईएससी में डीबीटी-बायोकेयर फेलो, और अध्ययन की प्रमुख शोधकर्ता रश्मि दीक्षित बताती हैं, ‘निकट भविष्य में सूक्ष्म-गुरुत्वाकर्षण स्थितियों में प्रयोग करने के हमारे इरादे को ध्यान में रखते हुए डिवाइस को विकसित किया जा रहा है’

इसरो की मदद से टीम ने ऐसे उपकरणों को अंतरिक्ष में भेजने की योजना बनायी है, ताकि वे बैक्टीरिया के विकास पर कम गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव का अध्ययन कर सकें।

प्रोफेसर कुमार कहते हैं, ‘मैं बहुत उत्साहित हूं कि दुनियाभर के कई शोधकर्ता दूसरे ग्रहों को उपनिवेश बनाने के बारे में सोच रहे हैं। हालांकि, यह जल्दी नहीं हो सकता है, लेकिन, लोग सक्रिय रूप से इस पर काम कर रहे हैं’ (इंडिया साइंस वायर)

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