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31 बातें जो आप सुब्रमण्यम स्वामी के बारे में नहीं जानते...

हमें फॉलो करें 31 बातें जो आप सुब्रमण्यम स्वामी के बारे में नहीं जानते...
जब-जब समझा गया कि सुब्रमण्यम स्वामी का करियर समाप्त हो गया है तो वे पौराणिक फीनिक्स पक्ष‍ी की तरह से फिर से नए स्वरूप में सामने आ गए। एक शिक्षक, अर्थशास्त्री, गणितज्ञ, राजनीतिज्ञ, वकील, विद्रोही, धर्मयोद्धा, श्वान प्रेमी और इसके अलावा बहुत कुछ सुब्रमण्यम स्वामी का जन्म एक तमिल ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका समूचा परिवार ही बुद्धिजीवियों का है और इस कारण से वे खुद को 'योद्धा ब्राह्मणों की एक लम्बी श्रृंखला' में पैदा हुआ व्यक्ति बताते हैं। उनके बारे में बहुत से ऐसे तथ्य हैं जो कि संभवत: आपकी जानकारी में न हों।   
* उनके पिता एक सुविख्यात गणितज्ञ थे और वे (सीताराम सुब्रमण्यम) भारतीय सांख्यिकी संस्थान के निदेशक रहे थे। 
 
* स्वामी का जन्म 15 सितम्बर, 1939 को चेन्नई के मइलापुर क्षेत्र में हुआ था।
 
* उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से गणित में बी.ए. आनर्स की डिग्री ली थी। पूरे विश्वविद्यालय में वे तीसरे स्थान पर रहे थे। 
 
* जब वे छह माह के भी नहीं थे, उनके गणितज्ञ पिता ने 1940 में अपनी नौकरी बदल ली थी और वे चेन्नई (तत्कालीन मद्रास) से दिल्ली आ गए थे।    
 
* पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए उन्होंने भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आईएसआई) कोलकाता में प्रवेश लिया था। यहां पर उन्होंने अपनी पहली लड़ाई लड़ी।  
 
* आईएसआई के तत्कालीन निदेशक स्वामी के पिता के पेशेवर प्रतिद्वंद्वी थे। निदेशक पीसी महालानोबीस को जब पता चला कि स्वामी सीताराम सुब्रमण्यम के बेटे हैं तो उन्हें खराब ग्रेड मिलने लगे।
अगले पन्ने पर... महालानोबीस को इस तरह सुब्रमण्यम स्वामी ने मात... 

* महालानोबीस के दिमाग की उपज उस समय का योजना आयोग था, जिसे दशकों बाद प्रधानमंत्री मोदी ने समाप्त कर दिया। 
 
* तब महालानोबीस एक ऐसे व्यक्ति थे जिनसे कोई भी संस्थान में रहते हुए दुश्मनी करने के बारे में सोच भी सकता हो। 
 
* लेकिन, स्वामी ने जटिल समस्याएं सुलझाने के मामले में पीसी महालानोबीस को भी मात दी थी। जबकि सांख्यिकी में असाधारण योगदान देने के लिए महालानोबीस को मेयर ऑफ पैरिस अवार्ड दिया गया था। 
 
* स्वामी ने अपने शोधपत्र 'नोट्‍स ऑन फ्रेक्टाइल ग्राफिकल एनालिसिस' में महालोनाबीस के 'विश्लेषण सिद्धांत' को एक पुराने समीकरण की नकल सिद्ध कर दिया था। यह विद्रोही स्वामी का पहला बड़ा कारनामा था जिसने उन्हें एक बुद्धिजीवी और एक राजनीतिज्ञ के तौर पर स्थापित किया। 
 
* उन्हें हावर्ड में शोध करने का मौका मिला, जहां उन्होंने अमेरिकी अर्थशास्त्री और शोधकर्ता, हैंड्रिक एस. हौथेकर को अपनी प्रतिभा दिखाई। हैंड्रिक की सिफारिश पर उनका एक शोधपत्र इकोनोमीट्रिका में प्रकाशित हुआ था और उन्होंने ही स्वामी को हावर्ड में प्रवेश दिए जाने की अनुशंसा की थी।
 
अगले पन्ने पर... चीनी अर्थव्यवस्था के जानकार है स्वामी...   

* रॉकफेलर फेलोशिप की मदद से स्वामी ने मात्र ढाई वर्ष में 24 वर्ष की उम्र में पीएच-डी पूरी की थी। 1960 के दशक में गणित में विशेषज्ञता हासिल करने के साथ ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि हासिल करते हुए वे मात्र 27 वर्ष की उम्र में हावर्ड में पढ़ाने लगे।  
 
* हावर्ड में उन्होंने आर्थिक विज्ञान में नोबेल मेमोरियल प्राइज जीतने वाले पहले अमेरिकी पॉल सैमुअल्सन के साथ शोध पत्र लिखा। 1974 में प्रकाशित यह शोधपत्र 'थ्योरी ऑफ इंडेक्स नंबर्स' पर लिखा गया था। 
 
* बाद में स्वामी चीनी अर्थव्यवस्था के प्रसिद्ध जानकर बने। यहां उन्होंने भारत-चीन की अर्थव्यवस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया। यहीं पर किसी ने उन्हें चुनौती दे डाली कि वे चीनी भाषा मंदारिन को एक वर्ष से पहले नहीं सीख सकते, लेकिन स्वामी ने इस चुनौती को मात्र तीन महीने में ही पूरा कर दिखाया। 
 
* आज भी डॉक्टर स्वामी को चीनी अर्थव्यवस्था का नामचीन जानकार माना जाता है और वे भारत-चीन की अर्थव्यवस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन और विश्लेषण के मामले में अग्रणी समझे जाते हैं।   
 
* मुक्त बाजारों की अर्थव्यवस्था के पक्षधर रहे स्वामी को अमर्त्य सेन ने दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया। स्वामी के बाजार हितैषी विचार मनमोहनसिंह के 1991 के बजट से काफी पहले लोकप्रिय हुए थे। 1968 में वे हॉवर्ड से दिल्ली आ गए। 
 
स्वामी ने क्यों स्वीकार किया अमर्त्य सेन का प्रस्ताव... अगले पन्ने पर... 

* उस समय उनके विचार इतने अधिक आमूलचूल परिवर्तन के पक्षधर थे कि तत्कालीन भारत की प्रमुख नेता इंदिरा गांधी के 'समाजवादी गरीबी हटाओ' नारे की तुलना में बहुत अधिक स्वीकार्य नहीं थे।  
 
* अंतत: स्वामी ने अमर्त्य सेन का प्रस्ताव स्वीकार किया और उनके जैसे युवा शिक्षाविद को चीनी अध्ययन पर पूर्णकालिक प्रोफेसर बनाया गया। जब वे हावर्ड से दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स (डीएसई) पहुंचे तो उनके साथ एक और शिक्षाविद ने हावर्ड छोड़ा था, लेकिन उन्हें मात्र रीडर का पद ही दिया गया था।
 
* तब छात्रों ने स्वामी का समर्थन किया था। वे 1969 में आईआईटी दिल्ली आ गए जहां उन्होंने छात्रों को अर्थशास्त्र पढ़ाया। तब वे छात्रों के साथ हॉस्टल्स में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विषयों पर चर्चा करते थे। तब तक स्वामी एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री बन चुके थे। 
 
* उन्होंने तब सुझाव दिया था कि भारत को पंचवर्षीय योजनाओं को छोड़ देना चाहिए और विदेशी सहायता लेना बंद कर देना चाहिए। तब उनका मानना था कि अर्थव्यवस्था में 10 फीसदी तक की वृद्धि संभव है। 
 
* वर्ष 1970 में स्वामी, इंदिरा गांधी की नजर में आए। वे तब देश के शक्तिशाली प्रधानमंत्रियों में गिनी जाती थीं। तब बजट पर बहस के दौरान स्वामी के विचारों को इंदिरा ने खारिज करते हुए कहा था कि वे 'अव्यवहारिक विचारों वाले एक सांता क्लाज' हैं। संभवत: यह पहला मौका था जब इंदिरा ने स्वामी के विचारों की खिल्ली उड़ाई थी, लेकिन वे अपना काम करते रहे। 
 
अगले पन्ने पर...स्वामी को महंगी पड़ी इंदिरा गांधी से दुश्मनी...

* इंदिरा से दुश्मनी उन्हें बहुत महंगी पड़ी और तत्कालीन केन्द्र सरकार ने उन्हें दिसंबर, 1972 में आईआईटी से ‍बाहर का रास्ता दिखाया। तब स्वामी ने अपनी गैर कानूनी बर्खास्तगी के खिलाफ कोर्ट में मामला दायर किया। उन्होंने 1991 में केस जीता और अपनी बात को साबित करने के बाद मात्र एक दिन के लिए वे आईआईटी गए और उन्होंने इस्तीफा दे दिया।  
 
* 1974 में उनकी राजनीतिक पारी की शुरुआत हुई। तब उनकी पत्नी युवा थीं और वे एक बेटी के पिता बने थे लेकिन उनके पास कोई काम नहीं था। वे दोबारा अमेरिका जाने के बारे में सोचने लगे।   
 
* जनसंघ के वरिष्ठ नेता नानाजी देशमुख ने उन्हें फोन कर बताया कि पार्टी ने उन्हें राज्यसभा में प्रतिनिधित्व के लिए चुना है। 1974 में वे राज्य सभा के लिए चुने गए। आपातकाल के दौरान वे सरकार के कोपभाजन बने और उन्होंने तब तुर्कमान गेट, के अपने सरकारी क्वार्टर से विभाजन के शिकार लोगों के जीवन को नजदीक से देखा। 
 
* आपातकाल (1975-77) के दौरान वे एक राजनीतिक हीरो बन गए थे। सरकार ने उनका गिरफ्तारी वारंट जारी किया था लेकिन वे एक सरदार के वेश में लोकसभा में पहुंचे और वहां संक्षिप्त भाषण देकर गायब हो गए। पूरे 19 महीने तक वे भूमिगत रहे। इस दौरान वे अमेरिका से दिल्ली आए,  संसद में सुरक्षाकर्मियों को चकमा दिया। 
 
* 10 अगस्त, 1976 को उन्होंने लोकसभा की कार्यवाही में भाग लेकर सरकार की नींद उड़ा दी। बाद में वे संसद से नहीं वरन देश से बाहर भी चले गए और अमेरिका में जा पहुंचे थे। आपातकाल के बाद वे जनता पार्टी के संस्थापक सदस्य बने। 

* बाद में जनता पार्टी में विभाजन हो गया, लेकिन वे जनता पार्टी में ही बने रहे और अंत में 11 अगस्त, 2013 को उन्होंने अपनी पार्टी का भाजपा में विधिवत विलय कर लिया। उनकी पार्टी को लेकर विपक्षी दल मजाक उड़ाते थे, लेकिन वे अपने विचारों पर अड़े रहे।
 
* चंद्रशेखर की सरकार के छोटे से कार्यकाल में वे वाणिज्य और कानून मंत्री रहे और उन्होंने भारत में आर्थिक सुधारों की नींव डाली। उनके खाके पर ही पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधारों की नींव डाली।
 
* जब वे विपक्षी दल में थे और नेता प्रतिपक्ष थे तो सरकार ने उन्हें कैबिनेट रैंक के मंत्री का दर्जा दिया था। कहा जाता है कि गर्दिश के दिनों में भी स्वामी ने पीवी नरसिंह राव का साथ दिया था। उन्हें नरसिंहराव सरकार ने कमीशन ऑफ लेबर स्टेंडर्ड्स एंड इंटरनेशनल ट्रेड का अध्यक्ष बनाया और उन्हें कैबिनेट रैंक दी। 
 
* राजनीति करते करते वे एक वकील भी बन गए और उन्होंने टू जी घोटाले का पर्दाफाश करने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने 2008 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्‍टी लिखी थी कि उन्हें घोटाले में भूमिका के लिए मंत्री ए राजा पर मुकदमा चलाने की अनुमति दी जाए।  
 
* स्वामी ने भारतीयों की पहुंच कैलाश मानसरोवर तक बनाने के लिए चीनी नेताओं से बात की थी और इस सिलसिले में वे तत्कालीन वरिष्ठतम चीनी नेता देंग शियाओ पिंग से मिले थे। डॉ. स्वामी के प्रयासों के कारण भारत के लोग कैलाश मानसरोवर जैसे दुर्गम तीर्थ की यात्रा कर पाते हैं।  
 

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