Supreme Court order on habeas corpus issue : उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को कहा कि नाबालिग के संबंध में बंदी प्रत्यक्षीकरण के मुद्दे पर विचार करने वाली अदालतें बच्चे को चल संपत्ति नहीं मान सकतीं और अभिरक्षा में व्यवधान से उन पर पड़ने वाले प्रभाव पर विचार किए बिना उसे (अभिरक्षा को) हस्तांतरित नहीं कर सकतीं। पीठ ने कहा कि ऐसे मुद्दों पर यांत्रिक ढंग से निर्णय नहीं किया जा सकता तथा न्यायालय को मानवीय आधार पर कार्य करना होगा।
बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका किसी लापता व्यक्ति या अवैध रूप से हिरासत में लिए गए व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष पेश करने के निर्देश की मांग करते हुए दायर की जाती है। न्यायमूर्ति एएस ओका और न्यायमूर्ति एजी मसीह की पीठ ने कहा कि ऐसे मुद्दों पर यांत्रिक ढंग से निर्णय नहीं किया जा सकता तथा न्यायालय को मानवीय आधार पर कार्य करना होगा।
पीठ ने कहा, जब अदालत किसी नाबालिग के संबंध में बंदी प्रत्यक्षीकरण के मुद्दे पर विचार करती है, तो वह बच्चे को चल संपत्ति नहीं मान सकती है और अभिरक्षा में व्यवधान के बच्चे पर पड़ने वाले प्रभाव पर विचार किए बिना अभिरक्षा हस्तांतरित नहीं कर सकती है।
शीर्ष अदालत ने दो साल और सात महीने की एक बच्ची की अभिरक्षा से जुड़े मामले में अपना फैसला सुनाया। दिसंबर 2022 में उसकी मां की असमय मौत हो गई थी और वह फिलहाल अपने ननिहाल पक्ष की रिश्तेदार के पास है। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के जून 2023 के फैसले को चुनौती देते हुए शीर्ष अदालत में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें बच्ची की अभिरक्षा उसके पिता और दादा-दादी को सौंपने का निर्देश दिया गया था।
पीठ ने कहा कि पिछले वर्ष जुलाई में शीर्ष अदालत ने उच्च न्यायालय के फैसले के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय एक ऐसी बच्ची की अभिरक्षा के मामले से निपट रहा है जो अपनी मां की मृत्यु के बाद छोटी सी उम्र से ही अपने ननिहाल पक्ष के रिश्तेदारों के पास रह रही है।
न्यायालय ने कहा कि जहां तक बच्चे की अभिरक्षा के संबंध में निर्णय का प्रश्न है, एकमात्र सर्वोपरि विचारणीय बात नाबालिग का कल्याण है तथा पक्षकारों के अधिकारों को बच्चे के कल्याण पर हावी नहीं होने दिया जा सकता। पीठ ने कहा, हमारा मानना है कि मामले के विशिष्ट तथ्यों और बच्ची की उम्र को देखते हुए, यह ऐसा मामला नहीं है, जिसमें भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत याचिका दायर कर बच्चे की अभिरक्षा में बाधा पहुंचाई जा सके।
न्यायालय ने कहा, बच्ची ने एक वर्ष से अधिक समय से अपने पिता और दादा-दादी को नहीं देखा है। दो वर्ष और सात महीने की छोटी सी उम्र में यदि बच्ची की अभिरक्षा तुरंत पिता और दादा-दादी को सौंप दी जाती है, तो बच्ची दुखी हो जाएगी, क्योंकि बच्ची काफी लंबे समय से उनसे नहीं मिली है।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि पिता को अभिरक्षा का अधिकार है या नहीं, यह मामला सक्षम अदालत द्वारा तय किया जाना है, लेकिन निश्चित रूप से, यह मानते हुए भी कि वह अभिरक्षा का हकदार नहीं है, इस स्तर पर, वह बच्ची से मिलने का हकदार है। पीठ ने कहा, हम अपीलकर्ताओं को निर्देश देने का प्रस्ताव करते हैं कि वे बच्ची के पिता और दादा-दादी को हर पखवाड़े में एक बार बच्ची से मिलने की अनुमति दें। (भाषा)
Edited By : Chetan Gour