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अंग्रेजों ने पैदा किया भाषाई अलगाव

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नई दिल्ली (वार्ता) , मंगलवार, 6 नवंबर 2007 (21:09 IST)
1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने भाषा को धर्म से जोड़ा और हिन्दी तथा उर्दू के बीच अलगाव पैदा किया। इसके अलावा इस दौरान हिन्दी के कई अखबार डर के मारे क्रांति का समर्थन नहीं कर पाए तथा मिर्जा गालिब से लेकर सर सैयद अहमद खाँ, भारतेन्दु हरिश्चंद्र तथा प्रताप नारायण मिश्र तक अंग्रेजों का खुलकर विरोध नहीं कर सके।

नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा '1857 हिन्दी और उर्दू गद्य' पर प्रभाव विषय पर आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी के मंगलवार को प्रथम दिन वक्ताओं ने यह राय व्यक्त की। संगोष्ठी में उद्घाटन भाषण प्रख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने दिया।

अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव एवं 'वसुधा' पत्रिका के संपादक प्रो. कमला प्रसाद ने कहा कि 1857 की क्रांति में हिन्दुओं और मुसलमानों की एकता से घबराकर अंग्रेजों ने उन्हें विभाजित करने की चाल चली और इसलिए उन्होंने भाषा को धर्म से जोड़ा।

प्रसाद ने कहा कि अंग्रेजों ने देश की राजनीति में न केवल साम्प्रदायिक राजनीति के बीज बोए, बल्कि हिन्दी और उर्दू के बीच अलगाव भी पैदा किए। उन्होंने धर्म और भाषा के आधार पर विभाजन कर भारत पर शासन करने की रणनीति अपनाई।

दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के पूर्व अध्यक्ष एवं जनवादी लेखक संघ के महासचिव डॉ. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने कहा कि अंग्रेजों ने विलियम फोर्ट कालेज की स्थापना ही इसलिये की थी कि इन दो जुबानों को किस तरह अलग किया जाए। 1857 की क्रांति के बीच इन दोनों जुबानों को अलग करने की प्रक्रिया अंग्रेजों ने तेज कर दी।

डॉ. सिंह ने कहा कि 1880 के आसपास नागरी लिपि का आंदोलन भी इसलिए तेज किया गया। उन्होंने कहा कि हिन्दी के अखबारों ने 1857 की क्रांति के बारे में तब कोई खबरें नहीं दी जबकि उर्दू के अखबार दे रहे थे। भारतेन्दु से लेकर प्रताप नारायण मिश्र तक अंग्रेजों का खुलकर विरोध नहीं कर पाए थे।

डॉ. नामवर सिंह का कहना था कि 1857 की क्रांति जैसी कोई हथियार बंद क्रांति 19वीं सदी में पूरी दुनिया में नहीं हुई थी और लोकभाषा के साहित्य पर इसका गहरा असर पड़ा था तथा जनश्रुतियों में इसके किस्से विद्धमान है।

इससे पहले 1857 की क्रांति में सर सैयद अहमद खाँ की भूमिका पर वक्ताओं में थोडा विवाद भी पैदा हो गया। मेरठ कालेज के इतिहासकार केडी शर्मा का कहना था कि सर सैयद अहमद खाँ अंग्रेज परस्त थे और उन्होंने 'असवाबे बगावते हिन्द' के कुछ अंशों को देखा है जिसमें उन्होंने क्रांति का विरोध किया है।

जामिया मिल्लिया इस्लामिया में इतिहास के शिक्षक रिज्वान कैसर का कहना था कि सर सैयद अहमद खाँ को पूरे संदर्भ में देखा जाना चाहिए। उनका कहना था कि सैयद अहमद की किताब को गलत ढंग से पढ़ा गया है।

उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक डॉ. वहात अशरफी ने विवाद को सुलझाते हुए कबूल किया कि 1857 के बारे में सर सैयद अहमद खाँ ने अपनी पुस्तक 'असवाबे बगावते हिन्द' में अंग्रेजों का साथ देने वाले मुसलमानों का समर्थन किया और क्रांति में भाग लेने वालों को बुरा, भला कहा।

उन्होंने कहा कि न केवल सर सैयद अहमद खाँ बल्कि गालिब की भी मजबूरी थी, इसलिए वे अंग्रेजों का खुलकर विरोध नहीं कर पाए। गालिब ने तो अपने खतों में तो 'क्रांति' का समर्थन किया पर फारसी में लिखी अपनी पुस्तक में अंग्रेजों की तारीफ की।

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