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बैकुंठ धाम का तिल-तिल इंतजार...

-शोभना जैन

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बनारस की बाल विधवाओं की कहानी
वाराणसी। वाराणासी के गंगा घाट पर गहराती शाम के अंधेरे में, सब कुछ घुलता सा जा रहा है, घाट के ठीक ऊपर बने परकोटे पर अकेली माला जपती वृद्धा नर्मदा देवी की छाया भी इस अंधेरे में मिलती जा रही है, सिर्फ मद्धम सी आवाज़ सुनाई देती है, ओम नमः शिवाय... बाबा जल्दी वापस बुलाओ!

बुदबुदाहट भरी ये आवाज़ आसमान को चीरती सी चीत्कार क्यों लगी? नर्मदा देवी नेपाल से आईं उन सैकड़ों विधवाओं मे से एक हैं, जो यहाँ बरसो बरस से बैकुंड धाम पहुँचने का तिल-तिल इन्तज़ार कर रही हैं। सब अकेली हैं, लेकिन इंतजार सबका साझा है। तन्हा जिन्दगी में सुबह शाम प्रभु नाम की माला जपते-जपते बैकुंठ धाम, अपने परम पिता के पास पहुचने का इंतजार...
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पहाड़ों की तलहटी में बसे सुदूर नेपाल के एक छोटे से गाँव में आठ बरस की उम्र में ब्याही और अठारह बरस की उम्र में विधवा हो गई नर्मदा देवी पिछले 55 बरस से बनारस में हैं। बेहद दुबली-पतली, तांबई रंग, मुंडा सर, माथे पर चंदन का तिलक, झुकी कमर से धीरे-धीरे लाठी टेकते हुए गंगा घाट पर बने उनींदे से नेपाली विधवा आश्रम में बने अपने छोटे से अंधेरे तंग कमरे की ओर बढ़ती हुई, सपाट सी आवाज में नेपाली उच्चारण वाली हिन्दी में मेरा हाथ पकड़ कर कहती है, 'मेरे साथ चलो वहां हमारे दूर देश नेपाल की और भी विधवाएं मिलेंगी'। नेपाली विधवा आश्रम में डार से बिछड़ी लगभग 20 विधवाएं हैं जो या तो घर वालों द्वारा यहाँ लाई गई हैं या खुद ही आ गई हैं ताकि वे वाराणसी के गंगा घाट से बैकुंठ धाम जा सके, उन्हें जीवन चक्र से मुक्ति मिल सके।

आश्रम के अंधेरे तंग कमरों से घिरे आँगन में कुछ महिलाएं, जिनमें ज़्यादातर वृद्ध महिलाएं हैं, झुकी कमर से चौका चूल्हा संभाल रही हैं, कुछ चुपचाप बैठी हैं, कुछ गठरी सी बनी लेटी हैं। अंदर के कमरे में पीली कमजोर रोशनी में बिस्तर पर एक वृद्धा दुबकी सी लेटी है। पूछने पर वह झुंझलाती सी कहती है, 'सोने दो'। नर्मदा उन्हें सहलाती है तो सपाट् सी आवाज़ मे वे कुछ बुदबुदाती हैं। पिछले 40 बरस से आश्रम में रहने वाली पुष्प कला जीवन के थपेड़े खाते-खाते अब हार चुकी है। शायद हमदर्दी सी आवाज सुनते ही आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ता है। बहुत हुआ इंतजार, यहाँ आई थी तो सोचा था आते ही बाबा बुला लेगा, लेकिन वो बुलाता ही नहीं, बीमार हूँ, आँख से दिखाई भी नहीं देता|
वहां खड़े स्वयंसेवी संस्था सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक तथा अध्यक्ष डॉ. विंदेश्वरी पाठक कहते हैं, अम्मा आप सब अब हमारी परिवार की सदस्य है, सभी का इलाज होगा डॉक्टरों की टीम आपको देखने आ गई है। नेपाली विधवा आश्रम के अलावा पास के बिड़ला आश्रम में रहने वाली 90 वर्षीय एक अन्य नेपाली विधवा यह पूछे जाने पर कि नेपाल से इतनी दूर, वहां अपने घर जाने के लिए मन तो भटकता होगा? फिर वही निर्लिप्त सी सपाट आवाज़ में बूढ़े काँपते हाथों से खाना बनाते हुए कहती है, जब घर वालों ने छोड़ दिया, तो भोले बाबा हमारे पिता ने ही सहारा दिया फिर घर तो यही हुआ न। यह सभी महिलाएं यहाँ बरसों बरस से हैं। काले बालों में यहीं से सफेदी झांकी, फिर बाल चाँदी हुए, अब यही घर है। पिता के घर में सुरक्षित हैं। नेपाली विधवा आश्रम के संचालन के लिए नेपाली सरकार बहुत थोड़ी सी सांकेतिक सहायता राशि देती है, लेकिन इनकी बदहाल स्थिति को देखते हुए सुलभ ने वृन्दावन की विधवाओं की तरह उन्हे भी पैंशन व चिकित्सा सुविधाए देना शुरू कर दिया है।

गौरतलब है कि सुलभ ने वृन्दावन की 1000 विधवाओं को गोद लेने व इलाज करवाने व सम्मान से अंतिम बिदाई देने का बीड़ा उठाया है। इसके तहत वृन्दावन की इन विधवाओं को सुलभ द्वारा 2000 रुपए मासिक का भत्ता मिल रहा है।
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डॉ. पाठक कहते हैं दरअसल वैधव्य हमारे देश में सफेद कपड़ों में ताउम्र कैद की सजा है। दुनिया में सभी जगह वैधव्य इन अकेली महिलाओं व इनके परिवारों के लिए शाप बन जाता है। जरूरत है इस बुराई से लड़ा जाए। पाठक के अनुसार भारत में विधवा महिलाओं के संरक्षण के लिए उन्होंने एक विधेयक का मसौदा तैयार किया है। उन्होंने उम्मीद ज़ाहिर की कि इस मसौदे के आधार पर सरकार जल्द ही एक विधेयक संसद के इसी सत्र में पेश करेगी। उन्होंने कहा वाराणसी प्रधानमंत्री का कर्म क्षेत्र है, उन्हें आशा है कि देश भर मे विधवाओं की बदहाल स्थिति सुधारने के लिए जल्द ही आवश्यक कदम उठाए जाएंगे।

आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 4 करोड़ विधवाएं हैं। विधवाओं की बदहाली को सुधारने के नज़रिये से संपूर्ण राष्ट्र ने 2011 से 23 जून को अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस घोषित किया, लेकिन हालात कितने बदल रहे हैं, यह हम सबके लिए सोच का विषय है। आश्रम मे मौजूद एक अन्य 80 वर्षीय नेपाली विधवा पार्वती तथा सुभद्रा भी लगभग 50 वर्षों से यहाँ हैं। नर्मदा देवी कहती हैं जब शादी मे लाल रंग की साड़ी व हरे रंग की चूड़ियां पहनी थीं तो ज़िन्दगी के रंगों का पता नहीं था, लेकिन होश आया तो सफ़ेद रंग ही जिंदगी थी लेकिन ठाकुरजी की जैसी आज्ञा, फिर बुदबुदाती हैं, जल्दी बुलाओ ठाकुरजी, फिर वही चीत्कार सी बुदबुदाहट।

यह महिलाएं भले ही कभी सहमी सी भयभीत हिरणी सी नेपाल से वाराणसी आईं हों, भले ही परिवेश नया रहा हो लेकिन धीरे-धीरे यह वाराणसी, शिव धाम उनके पिता का घर बन गया। हालाँकि पहले इनकी स्थिति दयनीय थी, भीख मांगकर पेट भरना, मंदिरों में भजन गाकर थोड़ा अन्न पाकर गुजर करना, लेकिन धीरे-धीरे कुछ सरकारी मदद भी मिलने लगी पर स्थति ज्यादा बेहतर नहीं हुई। कहती है, जब से सुलभ ने हमारी जिम्मेदारी संभाली है, हालत ठीक सी लगती है। अब लगता है शांति और संतोष से मोक्ष का दरवाजा खुल जाएगा। डॉ. पाठक कहते हैं यह सहायता नहीं प्रयास है। जिंदगी की शाम में ही सही, इन्हें लगे कि दुनिया सिर्फ परायों की नही यहां कुछ अपने भी हैं।

रात हो गई है, गंगा तट पर बहती ठंडी बयार और पास के काशी विश्वनाथ मंदिर से आती घंटों की आवाजों के बीच पुजारी तट पर विशाल दीपकों से आरती कर रहें हैं, शिव, गंगा, अग्नि और सम्पूर्ण ब्रह्मांड की आरती, गंगा जगमगा रही है, तट पर श्रद्धालुओं की भीड़ है, आश्रम से वापसी में नर्मदा देवी साथ हैं, शांत बैठी हैं। मिचमिचाई हुई आँखों से आरती को निहारती हुई कहती हैं, पूरी जिंदगी माँ गंगा और बाबा के पास गुजार दी, शायद अब इलाज के बाद आँख ठीक हो जाए। मरने से पहले माँ गंगा की आरती ठीक से देख सकूँगी। मोक्ष, बैकुंठधाम जाने की आस में नेपाल से सैकड़ों मील पर, बनारस के घाट पर अकेली बैठी नर्मदा देवी और अचानक चारों ओर चमकीली होती जा रही गंगा आरती की रोशनी... जीवन चक्र शायद इसी को कहते हैं..

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