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मोदी सरकार का एक साल : काम कम हुआ, शोर ज्यादा मचा

हमें फॉलो करें मोदी सरकार का एक साल : काम कम हुआ, शोर ज्यादा मचा
- अनिल जैन
 
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार अपने कार्यकाल का एक वर्ष पूरा करने जा रही है। पांच साल का जनादेश प्राप्त किसी भी सरकार के कामकाज के वास्तविक मूल्यांकन के लिहाज से एक वर्ष की अवधि बहुत ज्यादा नहीं तो बहुत कम भी नहीं होती। और, फिर जिस सरकार ने पहले अपने सौ दिन पूरे होने पर और फिर छ: महीने पूरे होने पर भी अपनी कथित उपलब्धियों का लेखा-जोखा पेश कर दिया हो और जो अब धूमधाम से एक साल का रिपोर्ट कार्ड पेश करने की तैयारी कर रही हो तो मीडिया या तटस्थ समीक्षक भी सरकार के कामकाज का आकलन क्यों न करे! विपक्षी दल तो सरकार से एक साल का हिसाब-किताब मांगेंगे ही।
 
हालांकि नरेंद्र मोदी अपने चुनाव अभियान के दौरान जो वादे कर रहे थे उन्हें पूरा करने के लिए वे जनता से 60 महीने मांग रहे थे मगर जब वे बहुमत के साथ सत्ता में आ गए तो उन्होंने अपने विकास के एजेंडा को कार्यरूप में परिणित करने के लिए दस वर्ष का समय मांगना शुरू कर दिया।
 
जाहिर है कि सत्ता में आने के बाद उन्हें यह अहसास हो गया है कि जैसे और जितने वादे उन्होंने किए हैं उन्हें पूरा करना आसान नहीं है। हालांकि माहौल ऐसा बनाया जा रहा है कि जैसे भारत में आजादी के बाद पहली बार काम करने वाली सरकार आई है और देश में सब कुछ नए ढंग से हो रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि अभी तक पिछली सरकार की योजनाओं और फैसलों की नई पैकेजिंग के अलावा कुछ नया नहीं हुआ है। 
 
बीते एक साल के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ज्यादातर जोर विदेशों में अपनी छवि चमकाने पर रहा है। दुनिया के सामने अपनी योजनाओं और इरादों की चर्चा करने का हक हर किसी को है, पर इसका कोई मतलब तभी है जब आप घरेलू मोर्चे पर भी कामयाब होते दिखें।
 
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद पर आने से पहले देश की अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर से गुजर रही थी, लेकिन मोदी सरकार के आने की आहट से ही देश का शेयर बाजार कुलांचे भरने लगा और गत वित्त वर्ष की पहली तिमाही की आर्थिक वृद्घि दर 5.7 फीसदी दर्ज की गई थी, जो पहले जताई गई सामान्य उम्मीदों से भी कुछ अधिक थी। 
अगले पन्ने, अर्थव्यवस्था की स्थिति... 

आर्थिक विकास दर को पटरी पर लाने के अलावा प्रधानमंत्री जन-धन योजना के तहत देश की समूची आबादी को बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ने का अभियान शुरू किया गया, जिसके तहत 14.7 खाते खोले गए। प्रधानमंत्री ने धुआंधार विदेशी दौरे किए और मेक इन इंडिया का नारा देते हुए विदेशी निवेशकों को भारत में पूंजी लगाने के लिए न्यौता। इस सबसे अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में उम्मीद और उत्साह का माहौल बना और अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भी भारत की रेटिंग तो नहीं बढ़ाई मगर इसे पॉजिटिव जरूर कर दिया। लेकिन इन सबके बरक्स जमीनी हकीकत यह रही कि देश में आने वाली प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी में गिरावट दर्ज की गई। यही नहीं, बेरोजगार नौजवानों का धीरज भी जवाब देने लगा।
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किसानों की आत्महत्या का सिलसिला भी न सिर्फ बना रहा बल्कि बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि के चलते और तेज हो गया। सिर्फ खेती ही नहीं, अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में भी वह उत्साह नदारत हो चुका है जो नरेंद्र मोदी के आने की आहट से बना था। आर्थिक समाचार पत्र बिजनेस स्टैंडर्ड ने जिन 813 कंपनियों का अध्ययन किया है उनमें से 80 फीसदी कंपनियों के कारोबार और मुनाफे में गिरावट आई है। 
अगले पन्ने पर, कितनी कम हुई महंगाई... 
 
 

जहां तक महंगाई पर काबू पाने के वादे का सवाल है, सरकार अब तक इसमें नाकाम रही है। अनाज, दाल-दलहन, चीनी, फल, सब्जी, दवाइयां इत्यादि आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं और अंदेशा यही है कि ये कीमतें आगे और भी बढ़ेंगी। ऐसे में आवश्यक वस्तुओं की कीमतों की इस मार को महंगाई कहना उचित या पर्याप्त नहीं है। 
 
यह साफतौर पर बाजार द्वारा जनता के साथ की जा रही लूट-खसोट है। यही नहीं, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें 50 डॉलर प्रति बैरल तक आ जाने के बावजूद जनता को कोई खास फायदा नहीं हुआ है। सरकार ने जनता को राहत पहुंचाने के बजाय करों में बढ़ोतरी कर तेल कंपनियों के बहाने अपनी जेब भरी है।
  
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नरेंद्र मोदी ने चुनाव अभियान के दौरान वादा किया था कि वे सत्ता में आने के सौ दिनों के भीतर विदेशों में जमा सारा काला धन वापस लाकर देश की जनता में बांट देंगे। इस सिलसिले में सरकार ने विशेष जांच दल का गठन जरूर कर दिया लेकिन जांच के काम में प्रगति की कोई खबर नहीं है और पूछे जाने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अपने नेता के किए गए वादे को चुनावी जुमला बता जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की कोशिश कर चुके हैं।  
अगले पन्ने पर, प्रशासनिक स्तर पर कितने हुए सुधार... 
 
 
 

शुरू में प्रधानमंत्री की सक्रियता और प्रशासनिक सुधार पर उनके जोर देने से लोगों में यह सकारात्मक संदेश गया कि बड़े फैसले करने की बजाय उनका ध्यान प्रशासन को चुस्त करने और लालफीताशाही कम करने में है, ताकि आर्थिक तरक्की के रास्ते मे बाधाएं कम हों। लेकिन इसी के साथ जल्दी ही देखने में आ गया कि सारी कार्यकारी शक्तियां प्रधानमंत्री कार्यालय में केंद्रित होती जा रही हैं। सत्ता के इस अति केंद्रीयकरण पर सरकार के बाहर ही नहीं, सरकार और सत्तारूढ़ दल के भीतर भी सवाल उठने शुरू हो गए हैं। हाल ही में आया वरिष्ठ भाजपा नेता अरुण शौरी का बयान इस सिलसिले में ताजा मिसाल है, जिसमें उन्होंने कहा कि भाजपा और सरकार में सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, वित्त मंत्री अरुण जेटली और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को मालूम रहता है कि सरकार कल क्या करेगी।
 
मोदी सरकार ने संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण के जरिए देश की संवैधानिक संस्थाओं का मान रखने का भरोसा दिलाया था, लेकिन कई राज्यपालों को मनमाने ढंग से हटाकर उसने न सिर्फं राष्ट्रपति के आश्वासन के उलट काम किया बल्कि यह भी बता दिया कि कांग्रेस की तरह वह भी राजभवनों को अपनी पार्टी के थके-हारे और असुविधाजनक लगने वाले नेताओं की विश्राम स्थली से ज्यादा कुछ नहीं समझती। इस सिलसिले में एक पूर्व प्रधान न्यायाधीश को राज्यपाल बनाना भी कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है। 
 
संसदीय कामकाज के लिहाज से भी सरकार के खाते में उपलब्धियां कम और नाकामियां ज्यादा दर्ज हैं। कई महत्वपूर्ण विधेयक पारित नहीं हो सके हैं, जबकि कई विधेयक ऐसे हैं, जिन्हें विपक्षी दलों के साथ सहमति बनाकर पारित कराया जा सकता था। मगर सत्तापक्ष के अहंकारी रवैये के चलते वे लटके रह गए। सरकार कह सकती है कि उसे विपक्ष का सहयोग नहीं मिल पा रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि बीते एक साल की अवधि में सत्तापक्ष की ओर से विपक्ष के साथ संवाद बनाने की बनाने की कोई संजीदा पहल की ही नहीं गई। विपक्ष की कौन कहे, भाजपा ने अपने सहयोगी दलों तक को विश्वास में लेने की कोशिश भी नहीं की। 
 
प्रधानमंत्री सबको साथ लेकर चलने की बातें जरूर करते रहे हैं, पर व्यवहार रूप में वे अभी चुनाव प्रचार की मुद्रा अपनाए हुए न सिर्फ देश में बल्कि विदेशों में भी विपक्षी दलों को कोसने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। संसद का सत्र शुरू होने से पहले या किसी महत्वपूर्ण मसले पर सर्वदलीय बैठक करने या विपक्षी दलों के नेताओं से राय-मशविरा करने में भी सरकार ने कभी रुचि नहीं दिखाई।
 
घरेलू मोर्चे पर यह भी कम चिंताजनक नहीं है कि मोदी सरकार के आने के बाद सांप्रदायिक तत्वों के हौसलें बढ़े हैं। देश में कई जगह सांप्रदायिक दंगे हो चुके हैं। हालांकि प्रधानमंत्री ने पंद्रह अगस्त को लाल किले से अपने संबोधन में कहा था कि अगर भारत को तेजी से विकास करना है तो दस साल तक लोग सांप्रदायिक और जातीय झगड़े भूल जाएं। प्रधानमंत्री के इस आव्हान की व्यापक सराहना भी हुई लेकिन देखा यह जा रहा है कि खुद प्रधानमंत्री की पार्टी और वैचारिक कुनबे के लोग ही कहीं घर वापसी के नाम पर तो कहीं गिरजाघरों पर हमलों के जरिए सांप्रदायिक तनाव फैलाने और ध्रुवीकरण की कोशिशों में जुटे हुए हैं। इस स्थिति पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा तक अपनी भारत यात्रा के दौरान चिंता जता चुके हैं लेकिन प्रधानमंत्री का अपनी पार्टी के ऐसे तत्वों पर कोई नियंत्रण नहीं है।
 
घरेलू मोर्चे पर ही बेहद चिंताजनक हालात कश्मीर घाटी के भी हैं। नरेंद्र मोदी ने चुनाव अभियान के दौरान जम्मू-कश्मीर को लेकर खूब लंबे-चौड़े वादे और दावे किए थे, लेकिन हकीकत यह है उनकी सरकार इस मोर्चे पर बुरी तरह नाकाम रही है। वहां विधानसभा चुनाव के बाद 'हिंदू राष्ट्रवादी' भाजपा ने हालात का हवाला देकर 'नरम अलगाववादी' पीडीपी की अगुवाई में सरकार तो बना ली और इस सिलसिले में अपने प्रिय मुद्दे 'धारा 370' को भी एक बार फिर ठंडे बस्ते में डाल दिया। इसके बावजूद घाटी के हालात न सिर्फ तनावपूर्ण हो गए हैं बल्कि अलगाववादी ताकतें खुलकर मैदान में आ गई हैं। वहां सत्ता में भाजपा की साझेदारी होने के बावजूद जेलों में बंद पाकिस्तान परस्त अलगाववादी नेता रिहा किए जा रहे हैं, जो न सिर्फ वहां रैलियों में भारत विरोधी तकरीरें कर रहे हैं बल्कि उन रैलियों में पाकिस्तानी झंडे भी लहराए जा रहे हैं। इन सारी गतिविधियों पर केंद्र सरकार सिर्फ जुबानी विरोध दर्ज करने के अलावा कुछ नहीं कर पा रही है। 
 
जहां तक विदेश नीति का सवाल है, इस मोर्चे पर प्रधानमंत्री मोदी ने इतने कम समय में जैसी सक्रियता दिखाई है वह अपूर्व है। इसकी धूमधाम भरी शुरूआत उनके शपथ ग्रहण समारोह से ही हो गई थी, जिसमें सार्क देशों और मॉरीशस के राष्ट्राध्यक्ष भी मौजूद थे। मोदी की भूटान और नेपाल यात्रा भी ऐतिहासिक मानी गई। इसके बाद प्रधानमंत्री जापान, मॉरीशस, सेशल्स, श्रीलंका, अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी और आस्ट्रेलिया भी घूम आए। इन सभी देशों में भारतीय प्रधानमंत्री का गर्मजोशी के साथ स्वागत हुआ लेकिन खटकने वाली बात यह रही कि इनमें से ज्यादातर देशों में प्रधानमंत्री अपने भाषणों के दौरान अपनी घरेलू और दलगत राजनीति से ऊपर नहीं उठ पाए। 
 
पाकिस्तान के साथ रिश्तों में सुधार की कोशिश के तहत भी मोदी सरकार ने अब तक जितने कदम उठाए हैं वे उसकी पाकिस्तान संबंधी नीति की दिशाहीनता के ही सूचक हैं। एक ओर तो वह पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भारत बुलाती है, उनसे शॉल और साड़ी का आदान-प्रदान होता है और दूसरी एक कमजोर बहाना बनाकर विदेश सचिवों की बैठक रद्द कर दी जाती है और जिस कारण से बैठक रद्द की जाती है, उस कारण का निवारण हुए बगैर ही फिर से बैठक आयोजित भी कर ली जाती है। चीन के मामले भी लगभग यही रवैया अपनाया गया। शुरू में मोदी ने चीन को अपनी विदेश नीति में सर्वोच्च प्राथमिकता देने की बात कही, लेकिन बाद में अपनी जापान यात्रा के दौरान उन्हें चीन के विस्तारवाद पर सवाल उठाने की जरूरत महसूस हुई।
 
कुल मिलाकर मोदी सरकार के अभी तक के प्रदर्शन को देखें तो कोई ज्यादा आशाजनक तस्वीर नहीं उभरती है। अगर राजनीति या किसी विचारधारा विशेष से प्रेरित प्रतिक्रियाओं से परे इस एक साल के कामकाज की तटस्थ समीक्षा की जाए तो कहा जा सकता है कि जिन लोगों को मोदी से बहुत उम्मीदें थीं, वे उस हद तक पूरी नहीं हुईं और जिन्हें यह लग रहा था कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने से देश का बंटाढार हो जाएगा, वैसा भी नहीं हुआ। कहा जा सकता है कि मोदी ने अपने समर्थकों और आलोचकों, दोनों की ही उम्मीदों और आशंकाओं को काफी हद तक झुठलाया है।

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