यूनेस्को सूची में भारतीय लोकनृत्य
पिछले दिनों जब राजस्थान का कालबेलिया, उड़ीसा और झारखंड व पश्चिम बंगाल का छाऊ नृत्य और केरल का मुडियेट्टू लोक नृत्य को यूनेस्को की विरासत सूची में शामिल किया गया, तब सरकार को इनकी अहमियत समझ में आई। जाहिर तौर पर जिन इलाकों में इन लोकनृत्यों का प्रचलन अधिक है वे इलाके पिछड़े इलाकों में शुमार किए जाते हैं। आर्थिक मदद न मिलने के कारण इनसे जुड़े कलाकार और लोक-कलाएँ गंभीर संकट से गुजर रही हैं। यूनेस्को में शामिल हो जाने से इन्हें जैसे अचानक संजीवनी मिल गई हो। यूनेस्को को भी उम्मीद है कि इस कदम से अमूर्त विरासतों के प्रति बेहतर नजरिया अपनाने के साथ ही लोकनृत्यों के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ाने में अवश्य कामयाबी मिलेगी। इससे सबसे ज्यादा फायदा यह मिलेगा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय इनको संरक्षित करने और इनको बढ़ावा देने की दिशा में जरूर आगे आएगा। जिन लोकनृत्यों को संरक्षण हासिल हुआ है वे कई शताब्दी पुराने हैं। आजादी के पहले विदेशी सरकार से संरक्षण प्राप्त न होने के बावजूद ग्रामीण लोक-कलाकारों ने अपने बूते इन्हें जीवंत बनाए रखा। इसका एक प्रमाण यह भी है कि उत्तरप्रदेश की नौटंकी, धाबी नृत्य और मिर्जापुरी होली, जो आजादी के पहले लोगों के मनोरंजन के साधन और प्रेरणा के स्रोत हुआ करते थे, अब महज विशेष सरकारी कार्यक्रमों में देखने को मिलते हैं। यूनेस्को की सूची में कुछ लोक-कलाओं के शामिल करने के बाद एक आशा जगी है कि शायद भारत सरकार इनकी खबर ले और इन्हें इनका वाजिब स्थान दिलाए।