कान फिल्म फेस्टिवल से प्रज्ञा मिश्रा की रिपोर्ट ....
कान फिल्म फेस्टिवल में शनिवार की शाम साढ़े सात बजे रीडॉउटेबल फिल्म की स्क्रीनिंग थी, फ्रेंच सिनेमा के बहुत बड़े फिल्म डायरेक्टर गोदार्द और उनकी प्रेम कहानी पर बनी इस फिल्म को देखने के लिए भीड़ होना स्वाभाविक भी था। इसीलिए सभी, कुछ जल्दी ही पहुंच गए थे। लेकिन जब तय शुदा समय गुजर जाने के बाद भी डेबुसी सिनेमा के दरवाजे नहीं खुले तो पहले तो लोग कुनमुनाये।
फिर तालियां बजा कर बताया कि हम यहां खड़े हैं। लेकिन जब जाना कि धीरे धीरे सिक्योरिटी जैकेट पहने लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है। और फिर अचानक कहा गया लाइन ख़तम, सारे लोग पीछे हटो और तब समझ आया कि यहां कुछ और ही मामला है। एक तरफ रेड कारपेट का समय भी है। जरूर कुछ न कुछ गड़बड़ है। वैसे भी आज कल जैसे ही लोगों को जगह खाली करने को कहा जाता है, सभी अपनी जान माल की परवाह करके वहां से निकल ही लेते हैं।
खैर 45 मिनिट बाद जब पुलिस का ख़ास दस्ता और पुलिस के डॉग स्क्वॉड की तरफ से मंजूरी मिली तब जाकर फिल्म देखने को मिली। बहुत ही कम लोग थे जो घर लौट गए वरना सभी इसी इसी खोज में खड़े थे कि देखें आखिर मामला क्या है।
सुनने में आया कि कोई पार्सल था जिसका कोई वारिस नहीं था। और ऐसे मौके पर बम होने की शंका के अलावा और कोई कारण नहीं हो सकता। वैसे तो फेस्टिवल की तरफ से कोई स्टेटमेंट जारी नहीं हुआ है। लेकिन जिस तरह से जांच हुई और फिर फिल्म भी दिखाई गई, ऐसा लगता नहीं कि कोई खतरे वाली बात थी।
लेकिन पिछले दो साल की घटनाओं के बाद सिक्योरिटी बढ़ती ही जा रही है। सड़कों पर ही नहीं आसमान में भी हेलीकाप्टर से निगरानी रखी जा रही है। अभी तो फेस्टिवल आधा भी नहीं हुआ है और फिल्मों के अलावा भी बहुत कुछ ड्रामा हो गया है। वैसे भी एक फिल्म को देखने के लिए इतने समय पहले से आना, इतनी जांच से गुजरना और उसके बाद फिल्म देखना, अपने आप में एक एडवेंचर, एक अनुभव है। फिल्म को देखने वाला अनुभव तो जाने ही दें। उसकी कोई तुलना नहीं है। और यही वजह है कि चाहे बम का खतरा ही क्यों न हो, अधिकतम लोग फिल्म देखे बिना जाने वाले नहीं थे।