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रेखा मैत्र जन्म बनारस में। सागर विवि से हिंदी साहित्य में एम.ए. किया। मुंबई विवि से टीचर्स ट्रेनिंग में डिप्लोमा। अमेरिका में बसने के बाद गवर्नेस स्टेट यूनिवर्सिटी से ट्रेनिंग कोर्स किए। मलेशिया भी रहीं और यहीं से कविता लेखन शुरू हुआ। फिलहाल अमेरिका में हिंदी प्रचार-प्रसार से जुड़ी साहित्यिक संस्था 'उन्मेष' के साथ संबद्ध हैं। प्रकाशित कविता संग्रह : पलों की परछाइयाँ, मन की गली, उस पार, रिश्तों की पगडंडियाँ, मुट्ठी पर धूप, बेशर्म के फूल। अधिकांश कविताएँ बांग्ला और अँग्रेजी में अनुवादित तथा अमेरिका के हिंदी कवियों की प्रकाशित पुस्तक 'मेरा दावा है' और प्रवासिनी के बोल' में भी रचनाएँ सम्मिलित।
कैलिफोर्निया की ये
मटियाली इमारत!
ईंट की बनी होने से
इसके वासी भी अपने
अपने अहसासों को
पत्थरों में तब्दील करते से!
दीवारें अगर खोदो
चूने-गारे की जगह
यातना और पीड़ा ही दिखे!
यहाँ हर आने-जाने वाला
अजीब-सी घुटन समेटे
दिन काटता नहीं
दिन गिनता-सा दिखे!
इधर से गुजरती
गाडि़याँ भी दौड़ती नहीं
थमी-सी नजर आएँ!
क्या आदमी की तरह
गाडि़यों ने भी इस
इमारत के दर्द का
रिश्ता बना रखा है!
इसकी खिड़कियाँ
हवा के लिए नहीं खुलतीं
रोशनी के लिए
बंद रहती हैं!
'गर्भनाल से साभार'