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स्तुति कर श्रीराम की, या नित गंगा नहाए जिया गर तेरो खुश नहीं, व्यर्थ हैं सभी उपाय। मंदिर का मुख देखिए, न मज़जिद के रुख़ जाएजो भी जाको ईश है, आपहु मनवा पाए बारहिं बार मरन से बहितर, एक बारि मरि जाए धड़ से सर यूँ अलग कीजिए, उफ़ तक निकरहि नाए तकते तकते राह को, नयन गए पथिराए पिया मूरत हियामा बसी, दूजो कोऊ न भाए माँ की ममता, महि की क्षमता, अंत कोऊ नहीं पाए दोऊन जननी, दोऊन माता, प्रभु भी इन्हीं जनाए जिभ्यापे कंटक उगहिं, अरु जियरा नाहीं धीर आपहिं नजरन में गिरत, औरन को दें पीर बैठा लकड़ी बाँध के, क्यों मरघट के तीरबंधन सौ मुक्ति कहाँ, बिनु अग्नि अरु नीरअपनी सुविधा के लिए, मानुष धर्म रचायो लोग सुने उसकी कहें, खौफे खुदा जतायो खोंट के साथ खरा ज्यूँ, झूठ के साथ है साँचविपदा गले लगाइए, यहि मानुष की जाँच मूढ़न को अब क्या कहें, जब ज्ञानी भए शिकार एक ओर अंधकार घोर है, दूजो भरो अहंकार कान गधे के ऐंठ देई, बस न चल ही जो कुम्हार उल्टी गंगा बह रही, फँसयो बीच मजधार भारी ऋण मोपे लदयो, कागज़ पतरी नाऊँ धरत पाओं ढुब जाई या, दरस कहाँ तै पाऊँ साबुन काटे गंदगी, तो साबुन नित मैं खाऊँ उजरी चादर होत क्या, मन उजियारो चाहूँ इतय-उतय मत खोजिए, मिलहि न वो हरजाई हिया झरोखे झाँक लेही, मिल जंहिए तोह सांई चार दिन की जिंदगी मा, तीन दिन सबका हँसाई एक दिन बाकी बचा था, हो रही है जग हँसाई। चक्कर कुर्सी का चलयो, यूँ भी नौबत आई चाकू घोप्यो पीठ मा, कौन किसू को भाई जितना चाहे बाँटिए, कोई कमी नहीं आए खुलो खजानो ज्ञान को, लूटि लूटि लई जाए फूल-फूल मंडरात है, मधु माखी की मांहि ज्ञान कोष संचित करत 'निर्मल' वाओलो नाहिं।