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बाल कहानी : कर्मगति

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हमें फॉलो करें बाल कहानी : कर्मगति
- डॉ. राधा गुप्ता
कानपुर में जन्म। कानपुर विवि से एम.ए. और बुंदेलखंड विवि से पी‍-एच.डी.। भारत में 1983 से 1998 तक अध्यापन। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, लेख और कविताएँ प्रकाशित। मई 1998 में अमेरिका पहुँची। 2003 में एडल्ट एजुकेशन में शिक्षण से जुड़ गईं। स‍म्प्रति वे वेसलियन विश्वविद्यालय, कनैक्टिकट में हिन्दी की प्राध्यापक हैं।

GN
बच्चों! कहानी सुनाने से पहले मैं तुम्हें कहानी के बारे में कुछ बता देना चाहती हूँ कि कहानी क्या है, कहानी की शुरुआत कहाँ से हुई आदि। बच्चों कहानी प्राचीन सभ्यताओं की आधारशिला है। हितोपदेश, पंचतंत्र, कथा सरिता सागर जैसे कथा ग्रंथ इस तथ्य के संकेतक हैं। प्रथम कहानी की शुरुआत भारत से हुई यानी भारत को दुनिया का प्रथम कथा केंद्र माना जाता है।

कहानी भारत की बहुत ‍पुरानी विधा रही है। कभी यह विधा बड़े-बूढ़ों और बच्चों के बीच मनोरंजन का आधार थी तो कभी जीवन संघर्ष के धरातल पर अनुभवगत शिक्षा की सार्थकता बाँटने में समाज उपयोगी सिद्ध हुई। पुरानी कहानियाँ कल्पना प्रधान एवं शिक्षाप्रद होती थीं और आज की कहानियाँ यथार्थवादी हो गई हैं।

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GN
पुरानी कहानी में कथाकार पूरी दास्तान सुनाता था और आज की कहानी खुद बोलने लगी है। खैर! कहानी पुरानी हो या नई, कहानी का लक्ष्य मानव जीवन को समाज-सापेक्ष बनाना तथा पारस्परिक संबंधों में सहअस्तित्व एवं सहभागिता को स्वीकारना है। अनुचित का पश्चाताप एवं उचित का पुरस्कार किसी भी कहानी की शिक्षाप्रद धारणाएँ हैं। आज तुम्हें कुछ ऐसी ही कहानी सुनाने जा रही हूँ। देखना यह है कि तुम इससे क्या ग्रहण करते हो?

एक सेठ था। वह जितना कंजूस था उससे कहीं अधिक वह क्रूर था। उसकी पाँच संतानें थीं। चार बेटे और एक बेटी। बेटी सबसे छोटी थी। सेठ की एक कपड़े की दुकान थी। साथ में वह गाँठ-गिरवी का काम भी कर लेता था। घर के पीछे आमों का एक छोटा-सा बगीचा था।

पत्नी धरती जैसी सहिष्णु और गाय जैसी सीधी-सादी थी। कुछ भी कह-सुन लो सबकुछ सुन लेती, कहीं भी बिठा दो, चुपचाप बैठ जाती। बच्चे माँ के सामने तो खूब धमा-चौकड़ी मचाते किंतु पिता के सामने एक कोने में सहमकर बैठ जाते। सेठ के आते ही घर में सन्नाटा छा जाता।

सेठ को न तो पत्नी से प्यार था और न ही बच्चों से मोह। हर समय सभी को डाँटना-फटकारना एवं चाहे जब पीट देना उसके स्वभाव में था। जब बच्चे पिटते तो माँ का कलेजा फटने लगता, वह बीच में आती तो खुद पिट जाती। माँ एवं बच्चों के बीच एक मूक समझौता था। माँ बच्चों की पीड़ा को समझती थी, बच्चे भी माँ की पीड़ा को समझते थे। विरोध कर पाने की हिम्मत किसी में नहीं थी।

घर का रहन-सहन अतिसाधारण था। बच्चों की शिक्षा-दीक्षा में भी सेठ को कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। बड़ा बेटा जब बारह साल का हो गया तो सेठ उसे स्कूल के बाद दुकान पर बिठाने लगा। बारह साल का बच्चा, उसके खाने-खेलने के दिन, कपड़े और गाँठ-गठरी की दुकान में बैठकर क्या करता? वह घर जाने को कहता तो बुरी तरह डाँट खाता या पिट जाता।

कुछ खाने को माँगता तो सेठ कहता- पहले पढ़ लो फिर दिला देंगे, तब तक चाट का ठेले वाला आगे बढ़ जाता। बच्चा कब तक बर्दाश्त करता, आखिर एक दिन घर छोड़कर भाग गया। माँ रो-रोकर आधी हो गई। अन्य बच्चे माँ के और करीब आ गए। सेठ को कोई धक्का नहीं लगा। बोला- 'जाएगा कहाँ एक दिन लौटकर आएगा ही', पर वह कभी लौटकर नहीं आया। फिर भी सेठ की क्रूरता एवं कृपणता में कहीं कोई कमी नहीं आई।

दो-चार दिन इधर-उधर भटकने के पश्चात बच्चा अपने ताऊजी के यहाँ पहुँच गया। वह काफी सहमा हुआ था, अत: उस दिन उससे किसी ने न कुछ पूछा और न कुछ कहा। उसके पिता के कठोर व्यवहार से सब परिचित थे।

हफ्ते-दस दिन बाद अपने ताऊ के स्निग्ध और रहमदिल स्नेह से उसके अंदर का दु:ख-दर्द स्वयं ही पिघलकर बाहर आ गया। माँ एवं भाई-बहनों पर क्या गुजर रही थी, उसने सबकुछ बता दिया। चिंतित मुद्रा में सभी एक लंबी साँस भरकर रह गए। कर भी क्या सकते थे? सबसे छोटा होने के कारण वह सभी का स्नेहभाजन बन गया।

ताऊजी को तीन संतानें थीं। दो लड़कियाँ और एक लड़का। दोनों लड़कियाँ बड़ी थीं और लड़का छोटा था। लड़के को चचेरे भाई के रूप में एक साथी मिल गया। ताईजी सहित सभी खुशमिजाज थे। लड़का सबमें खूब घुल-मिल गया, लेकिन वह अपने छोटे भाई-बहनों को भूला ‍नहीं।

ताऊजी ने सुधीर का स्कूल में एडमिशन करा दिया। सुधीर मेधावी था। इंटरमीडिएट में उसने जिले में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। ताऊजी सहित घर के सभी सदस्य फूले नहीं समाए। सभी गर्व से पुलकित हो उठे। सभी ने उसका माथा चूम लिया। सुधीर की आँखों में स्नेह के अश्रु छलछला आए। उसे अपनी माँ याद आ गई।

ताऊजी शहर के अच्छे वकीलों में से एक थे। उनकी अपनी जिंदगी की गाड़ी आराम से चल रही थी। उन्होंने सुधीर को आगे पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने सुधीर को आई.आई.टी. कानपुर में दाखिला दिया। इस बीच उन्होंने अपने एक घनिष्ठ मित्र राजवल्लभ पंत से सुधीर का परिचय करा दिया, जो एक कंपनी के मालिक थे। मि. पंत स्वयं एक जौहरी थे। हीरे को एक नजर में ही पहचान लिया। मैकेनिकल इंजीनियरिंग में उसकी अच्छी पकड़ को देखकर वे हतप्रभ हो गए। फिर उसकी शिक्षा-दीक्षा का पूरा उत्तरदायित्व उन्होंने अपने हाथों में ‍ले लिया।

चारों तरफ मान-सम्मान और स्नेह-प्यार से घिरे सुधीर को जैसे जन्नत मिल गई। वह बीच में अपने पिता से लुक‍-छिपकर अपनी माँ, बहन और भाइयों से मिलता रहा। उनका दु:ख-दर्द बाँटता रहा तथा अपने भाई-बहन को पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रोत्साहित करता रहा।

पढ़ाई पूरी करने के पश्चात सुधीर से मि. पंत ने कहा- तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं है। मैं अपने तीन बच्चों को तो विदेश भेज चुका। अब तुम्हें नहीं जाने दूँगा। तुम्हें यहीं रहकर मेरी कंपनी का कार्यभार संभालना होगा। यह मेरा सौभाग्य होगा सर। कहकर उसने उनके चरण छू लिए।

मि. पंत एक भले इंसान थे। अपनी तीनों संतानों को भली-भाँति शिक्षा-दीक्षा और संस्कारों से सुसंस्कृत बनाकर उन्हें उनकी इच्छानुसार अभिलाषित स्थानों पर भेज दिया। लड़की कनाडा जाना चाहती थी, उसे कनाडा भेज दिया। बड़ा लड़का अमेरिका जाना चाहता था, उसे अमेरिका भेज दिया। छोटा लड़का इंग्लैंड जाना चाहता था, उसे इंग्लैंड भेज दिया। तीनों बच्चे उच्च पदस्थ थे। अपने कर्तव्यनिर्वहन में वे पूरी तरह सफल हो सकें, इस बात का उन्हें संतोष था। मिसेज पंत एक विदुषी महिला थीं। पति की उन्नति एवं बच्चों के समुचित पालन-पोषण में उनका विशेष योगदान रहा।

एक दिन सुधीर ने मि. पंत से कहा- 'सर मैं अपनी माँ, बहन एवं भाइयों को भी यहाँ लाना चाहता हूँ।' प्रत्युत्तर में मि. पंत ने पूछा- 'तुम्हारे अन्य भाई-बहन भी हैं।' पश्चाताप एवं रोषभरे स्वर में मि. पंत ने कहा- 'जाओ इसी क्षण उन्हें लेकर आओ।'

सुधीर पहले अपने ताऊजी से मिलने गया और उनसे अपना मंतव्य बताया। ताऊजी ने कहा- 'यदि तुम सबको लेकर आ जाओगे तो तुम्हारे पिताजी का क्या होगा, वे अकेले पड़ जाएँगे।' 'यदि वे आना चाहेंगे तो मैं उन्हें भी ले आऊँगा।' सुधीर ने जवाब दिया। 'तब ठीक है।' कहकर ताऊ चुप हो गए।

सुधीर घर गया। सब कुछ काफी बदल गया था। भाई-बहन सब बड़े हो गए थे। माँ और भी दुबली-पतली हो गई थी। पिता जरूर पहले जैसे ही तेज-तर्रार थे। सुधीर ने कहा- 'मैं सबको लेने आया हूँ।' 'क्या कहा', पिताजी तनकर खड़े हो गए- 'कोई नहीं जाएगा यहाँ से, तुझे जाना था, तू जा चुका, अब वहीं जाकर रह, फिर लौटकर मत आना।' सुनकर सुधीर सन्न रह गया और खाली हाथ वापस चला आया।

दूसरे दिन जब पिताजी दुकान गए तो सब फटाफट तैयार हो गए और माँ को साथ लेकर सुधीर के यहाँ पहुँच गए। उस समय सुधीर नहा रहा था। सर्वेंट ने आकर बताया- 'सर आपके कुछ मेहमान आए हैं।' 'मेहमान! कहाँ से?' नौकर कुछ बोल पाता, इससे पहले ही वह समझ गया और बोला, ' अच्छा ठीक है, उन्हें बिठाओ, मैं आता हूँ।'

सुधीर सबको अपने घर में देखकर बहुत खुश हुआ। उसने तुरंत मि. पंत और ताईजी को फोन किया और वे तुरंत उनसे मिलने चले आए। ताऊजी के कारण सुधीर को मिले वैभव को देखकर सभी आनंद विभोर हो रहे थे। मि. पंत ने सुधीर को अपने परिवार के साथ खिलखिलाते देख चैन की साँस ली। मि. पंत ने सुधीर के छोटे भाई सुनील को उसकी शिक्षा और योग्यता के अनुसार कंपनी में काम दे दिया। सुधीर ने सतीश और श्वेता को पढ़ाने के लिए कॉलेज में एडमिशन दिला दिया। शहर की रौनक एवं बड़े भाई के स्नेह से सभी के चेहरे खिल गए।

माँ बच्चों और तमाम सुख-सुविधाओं के बीच रहकर खुश तो थी लेकिन रह-रहकर उसे पति की याद भी सताती थी। 'समय से चाय, खाना-पानी करते होंगे या नहीं? कहीं तबीयत तो खराब नहीं हो गई? क्या सोचते होंगे, मेरे इस तरह चले आने पर? आदि विचार उसके मन में कौंधते रहते। एक पति परायण भारतीय नारी अपने निर्मोही और नृशंस पति के प्रति इतनी कर्तव्यनिष्ठ हो सकती है, कोई सोच भी नहीं सकता। उसे अपने किए पर पछतावा हो रहा था। पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए एक दिन उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। पिता को सूचना दी गई लेकिन वे नहीं आए।

यह तो अच्छा हुआ कि सुधीर ने माँ के जीवित रहते श्वेता की शादी बड़े धूमधाम से कर दी थी। कम से कम माँ चैन से मर तो सकी। चैन से जी तो वह कभी नहीं पाई। जाते-जाते अपनी दो पुत्रवधुओं का मुँह देख गई थी। बाकी सुधीर पर उन्हें पूरा भरोसा था। सुधीर उनके जीवन का सबसे बड़ा वरदान था।

इधर मि. पंत का स्वास्थ्य कुछ गिरने लगा था, पर वे पूरी तरह आश्वस्त थे। उन्हें किसी प्रकार की कोई चिंता नहीं थी। एक दिन सुधीर ने मि. पंत से कहा- 'मैं आपके बच्चों को फोन करके आता हूँ।' मि. पंत ने बड़ी सहजता से कहा- 'कर देना, जल्दी क्या है? माना कि तुम मेरी संतान नहीं हो, पर संतान से कम हो क्या?' यह सुनकर सुधीर अवाक रह गया। मि. पंत उसे इस हद तक चाहते थे, यह उसने आज जाना। उसने उनके तीनों बच्चों को फोन कर दिया था।

बच्चे अपने पिता की अर्थी को कंधा देने के लिए नहीं पहुँच सके लेकिन त्रयो‍दशी संस्कार तक अवश्य पहुँच गए थे। उन्हें सुधीर पर फख्र था कि सुधीर ने पुत्रवत उनके डैडी का अंतिम संस्कार किया था। इधर सुधीर परेशान था कि मि. पंत ने ऐसा क्यों किया, उसके नाम सब कुछ कर दिया? यह संपत्ति तो उनके बच्चों को मिलनी चाहिए, इसे मैं उनके नाम ट्रांसफर कर दूँगा। मि. पंत के पुत्र धीरेन्द्र ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा- 'तुम्हें ऐसा करने की जरूरत नहीं है। हमें सब मालूम था। हम तीनों की मर्जी से यह सब हुआ है। विश्वास न हो तो पूछ लो सबसे।' 'लेकिन क्यों' सुधीर ने विचलित होकर पूछा। हमारे पास हमारे लिए बहुत है।' सभी ने एकसाथ उत्तर दिया।

'लेकिन मैं इतनी संपत्ति का क्या करूँगा?' सुधीर ने रुआँसा होकर पूछा।

'तुम्हारे लिए करने को बहुत कुछ है। तुम उन प्रतिभाओं की मदद कर सकते हो जो देश का गौरव बन सकती हैं।' धीरेन्द्र ने कहा तो पलक झपकते ही सब समझ गया और एकदम शांत हो गया।

ईमान की उपज भी ईमान ही थी। सच पूछो तो किसी को कुछ भी मालूम नहीं था। अपने दिवंगत प्रिय डैडी के इस निर्णय से वे पूरी तरह सहमत थे और बहुत खुश भी। संपत्ति का सदुपयोग बहुत जरूरी था और इसके लिए सुधीर के अलावा उपयुक्त पात्र कोई हो भी नहीं सकता।

उधर सुधीर के पिता सेठ दीनदयाल अकेले विचलित एवं बेचैन रहने लगे, पर ऊपर से वे यथावत कठोर बने रहे। घर का नौकर रामू जिसे उन्होंने अकेले में नौकर रख लिया था, उनकी डाँट खा-खाकर तंग आ गया और एक दिन नौकरी छोड़कर भाग ‍गया। एक अकेला बूढ़ा-निरीह माली रह गया था जिसने इसे सेठजी का स्वभाव समझकर व ‍िनयति मानकर स्वीकार कर लिया था। उसने अंत तक सेठजी का साथ निभाया।

अपनी वृद्धावस्था में एक दिन सेठजी संध्या पूजन की तैयारी कर रहे थे कि तभी अचानक 5-6 बदमाश उनके घर का दरवाजा खोलकर अंदर घुस गए। उस समय जाड़े के दिन थे और शाम के केवल 6 बजे थे। उनमें से एक ने कहा- अपना सारा माल हमारे हवाले कर दो। वरना हम तुम्हें मार देंगे। बदमाशों को देख सेठजी माथा पकड़कर बैठ गए। बदमाशों ने सेठजी से अलमारी की चाबी छीन ली। वे सभी नकदी-जेवरात लेकर भाग खड़े थे कि हाथ में कुल्हाड़ी लिए माली सामने आ गया था। एक के सिर में जोर से कुल्हाड़ी का प्रहार किया लेकिन दूसरे ने उस पर रिवॉल्वर दाग दी। मालिक की रक्षा करते-करते रक्षक खुद अपने प्राण गँवा बैठा।

सेठजी मूर्च्छित हो चुके थे। जब उनकी चेतना लौटी तो उनके मस्तिष्क में अतीत के कुछ धुँधले-धुँधले से चित्र उभरने लगे। पत्नी का अपने भाई की शादी में पहनने के लिए सीतारामी हार माँगना और उस पर बिजली की तरह कड़कना। बेचारी कैसी मायूस होकर रह गई थी। सुधीर को बचपन से ही पढ़ने का शौक था, वह कहानियों की रंग-बिरंगी किताबों की ओर आकर्षित होता तो किताबे कम डाँट ज्यादा खा जाता। सुनील का चाबी वाली रेलगाड़ी के लिए जिद करना और गाल पर तड़ से एक तमाचा जड़ देना।

सुधीर का अपने बर्थ डे पर बैटरी वाले स्कूटर का माँगना, दस वर्षीय श्वेता का जींस-टॉप के लिए मचलना, सब उनकी आँखों के सामने चलचित्र की भाँति तैरने लगा। कैसी निर्दयता से अपने बीवी-बच्चों की इच्छाओं को कुचलकर रख दिया था। कभी किसी को प्यार तक नहीं किया। हमेशा घुड़कता ही रहा। आज शायद पहली बार सेठजी को अपने किए पर पछतावा हो रहा था। लेकिन अब क्या हो सकता था। जो बीत गया, उसे वापस नहीं लाया जा सकता। दिल के सदमे ने उन्हें मौत की नींद ‍सुला दिया।

सेठजी के बच्चों को खबर दी गई। वे सब आए। पिता की दुरावस्था पर उन्हें बड़ा तरस आया, किंतु जिम्मेदार भी तो वे ही थे। सब ने मिलकर विधिवत उनका अंतिम संस्कार व अन्य क्रियाकर्म कर दिया। अब केवल मकान और बगीचा शेष बचा था। सुधीर ने वह मकान और बगीचा उस माली के बच्चों के नाम कर दिया जो उसके पिता की रक्षा करते-करते शहीद हो गया था।

कहानी यहीं खत्म होती है। बच्चों क्या तुम बता सकते हो कि यह कहानी चुपके से तुम्हारे कान में क्या कह रही है?

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