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सुनती हूँ

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- संध्या भग

3 अगस्त 1956 को रामपुर, उत्तरप्रदेश में जन्म, दिल्ली विवि से एम तथा रोहतक विवि से बी.एड. पढ़ाई के दौरान मन की मौज में आकर कविता, कहानी लिखना शुरू किया। गंभीर बात सहज ही कह जाने में महारत। नाटक मंचन के अलावा फिल्मों की स्क्रिप्ट भी लिखती हैं। पंद्रह बरसों तक ब्लाइंड रिलीफ एसोसिएशन से जुड़ी रहीं और ब्रेललिपि में महारथ हासिल की। इन दिनों जार्जिया के बालविहार की हिंदी पाठशाला में चौथी के बच्चों को पढ़ा रही हैं।

भाई ही भाई को काटता है
पहले सीमा के इस पार और
उस पार दो भाई रहा करते थे
फिर इनमें हुई भंयकर लड़ाई
और रास्ते में एक सीमा रेखा आई
सुनती हूँ कि कुछ आ गए
कुछ चले गए
और कुछ तो दुनिया से ही चले गए

सुनती हूँ
मकानों की लम्बी कतार थी छाई
उन मकानों पर भी विपदा थी आई
बाँटना ही था तो इनको तो छोड़ देते मेरे भाई
इनको क्यूँ आग है तुमने लगाई
क्या इस तरह मन की शान्ति है तुमने पाई

सुनती हूँ
कुछ घर भी जले थे
क्या उनकी भी थी किसी से लड़ाई
मन भीतर व बाहर से जले थे
जिसका जो भी जला था
उससे वह गहरे तक जुड़ा था
आग लगाने से पहले उसकी
जगह हम को तो करके देखते मेरे भाई

सुनती हूँ
तलवारें भी बड़ी चली थी
बहनें बलि की वेदी चढ़ी थीं
न तो वो ये थीं न ही वो वो थीं
वो तो हाड़ मास का ढाँचा भर थीं
शिकार सीमा की लड़ाई न थी

शिकार वे हैवानियत की थीं
दोहरे कुठाराघात की छली थीं
अंदर तक बँटी
बीच की सीमा रेखा पे खड़ी थीं
दरवाजे बंद इधर थे बंद उधर भी थे
जिस तरह से वे बँटी थी
अपने भाइयों से भी ज्यादा
भीतर तक वो कटीं थीं

ये सब सुनती हूँ
देख न सकी तब, आँख न खुली थी
जब आँख खुली तो
केवल सुनाने वाले थे सामने
मैंने तो ये सब मात्र सुना है
फिर आज जो सुना है
उस पर क्यूँ झगड़ँ मैं
जो पढ़ा है उसको
मान सच क्यूँ लड़ूँ मैं

कोई लिखता है कोई करता
कोई सुनाता है कोई दिखाता
मैं कहती हूँ ये सब एक हैं
क्यूँकि ये भड़काते हैं
खुद अपना काम करके
खेल का आनंद पाते हैं

सुनती हूँ
पास वाले घर में भी रहा करते थे दो भाई
फिर वहाँ भी तो हुई लड़ाई
और वहाँ भी बीच में वही एक सीमा आई
एक् ऊँची दीवार खड़ी हुई पड़ी दिखाई
जो पड़ी न दिखाई भीतर की
क्या वो दीवार फिर कभी ढाह पाई

सुनती हूँ
पत्थर दिल पे खाए थे
वो जो दो भाई थे
अब भी लड़ाने कोई आते हैं
तब भी लड़ाने कोई आए थे
जिसे जिसको मारा था वो
भी उसी की तरह एक बेचारा था
मार कर और मरवा कर

जो ताली पीटती है- ये उसकी ढीटता है
जो हमें नहीं दिखता है

सुनती हूँ
जो भी अपने भाई चले आए
वो कभी फिर भाई क्यों न कहलाए
यहाँ तो कोई सीमा न थी
वो फिर शरणार्थी क्यों कहाए
क्यूँ हुआ नया नामकरण उनका
घर से उजड़े अपने घर में - वो थे क्यों पराए
फिर क्यूँ न दी छत्र छाया उनको
विभाजन तो हुआ देश का पर
उनके हिस्से में ये दो नाम क्यों आए

सुनती हूँ
बँटकर भी झगड़ा खत्न हुआ
पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही है ये लड़ाई
आज भी पोतों के पोते उस बोझ को ढोते हैं
जो जानते नहीं पीठ पर लदी
उस पोटली में क्या है - बस एक काम है
जो श्रद्धा से सँजोए हैं
इस सहेज कर रखी पोटली को
एहतियात से अगली पीढ़ी को
सौंपकर कर्ममुक्त होते हैं

सोचती हूँ
अपने अंतर को क्यूँ न खँगालूँ मैं
मन के कोमल भावों को क्यों न जगा लूँ मैं
हर सीमा को पार करके
उसको क्यूँ न गले लगा लूँ मैं
जिससे मेरी न है कोई लड़ाई
लड़ाई तो उनकी है - जिन्होंने गद्दी है पाई

- साभार गर्भनाल

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