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प्रवासी कविता : मुसाफिरखाना

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-हरनारायण शुक्ला
 
आना-जाना लगा हुआ है, यह है मुसाफिरखाना,
थोड़ी देर यहां रुकना है, फिर है सबको जाना।
 
गठरी रखकर सीधा कर लूं, थोड़ा अपना पांव,
सात कोस हूं चलकर आया, छूटा मेरा गांव।
 
मेरे जैसे कई मुसाफिर आते हैं, फिर जाते हैं,
स्थायी रहने नहीं, बस थोड़ा रहकर जाते हैं।
 
तरह-तरह के लोग यहां हैं, कई तरह के वेश,
यहां से जब मैं कूच करूंगा, रहेगा बस अवशेष।
 
चलते बनूं मैं अपना रस्ता, छोड़ मुसाफिरखाना,
लंबा सफर है मेरा यह, देखें कब होगा फिर आना।
 

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