गोपाल बघेल 'मधु'
तुम चलत सहमित संस्फुरत,
स्मित औ सिहरत प्रष्फुटत।
परिप्रेक्ष्य लखि परिद्रश्य तकि,
पटकथा औ पार्थक्य लखि ।
उड़िकें गगन आए धरणि,
बहु वेग कौ करिकें शमन।
वरिकें नमन भास्वर नयन,
ज्यों यान उतरत पट्टियन ।
बचिकें विमानन जिमि विचरि,
गतिरोध कौ अवरोध तरि।
आत्मा चलत झांकत जगत,
मन सहज करि लखि क्षुद्र गति ।
आकाश कौ आभास तजि,
वाताश कौ भूलत परश।
ऊर्जा अगिनि संयत करत,
वारिधि की बाधा करि विरत ।
अहसास अपनौ पुनि करत,
विश्वास प्रभु सत्ता रखत।
'मधु' चेतना चित वृति फुरत,
चिर नियंता, आदेश रत।