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प्रवासी कविता : सपने खुली आंखों के...

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- विपुल गोस्वामी



 
एक झटके से कुर्सी से उठ जब पड़ोगे
या बिस्तर से सटना भी सजा लगेगी
या कमरे में ही मीलों चल लोगे
समझ लेना, नजरों को कुछ नया मिला
 
वो कल्पना थी जिसे कुर्सी से उठाया
वो बेसब्री थी जिसने नींद भगाई
वो दिशा थी जिसने मीलों चलाया
पर वो सब ऐसे ही खुद नहीं आया 
 
जब सपने खुली आंखों में बसने लगे
तब सोए भी गहरी नींदों से जगने लगे
पर बहुत नाजुक भी होते हैं ऐसे सपने
परवाने भी इनसे ज्यादा जी पाते होंगे
 
इसलिए सरपरस्त बनो इन कोमल तितलियों के
देवकी होना ही काफी नहीं, तुम यशोदा बनो
बेवजह वर्ना कुर्सियां खाली होती रहेंगी
बेवजह रातों की नींदें भंग होती रहेंगी।
 
मीलों तो बेशक चलते रहोगे
पहुंचोगे पर कहीं नहीं।

साभार- गर्भनाल 

 

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