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प्रवासी कहानी : अधूरे ख्वाब...

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श्वेता मिश्र (लागोस, नाइजीरिया)

इंडियन?
 
एफिल टॉवर को निहारती नजरें। पर खुद में ही खोई हुई हाथों में पेन और डायरी, शायद कुछ लिखने के प्रयास में। पार्क में अकेली बैठी गुहू की तन्द्रा एक आवाज से भंग हुई। उसने जब नजर उठाकर देखा तो एक खूबसूरत स्मार्ट जवान लड़का उसके सामने खड़ा था।
 
उसने एक बार फिर अपनी बात दुहराई 'आर यू इंडियन'?
 
तब गुहू ने सिर हिलाकर कर जवाब दिया, हां।
 
क्या मैं यहां बैठ सकता हूं?
 
श्योर, गुहू ने कहा।
 
मैं... अनमोल... अनमोल पारिख। मुझे पेरिस आए कुछ ही दिन हुए हैं। कंपनी की ओर से हम दस लोगों की टीम आई है।
 
लेकिन आप यहां कैसे?
 
मैं यहां फ्रेशर जॉब के सिलसिले में आई हूं।
 
आप कविता बहुत अच्छी लिखती हैं।
 
आपको कैसे मालूम? गुहू ने हैरानी से अनमोल से पूछा।
 
आपकी डायरी ने बताया, देखिए आप भी।
 
इतना सुनते ही गुहू जोर से हंसने लगी।
 
ओह... ये तो बस ऐसे ही... दरअसल लिखना मेरा शौक है और मुझे जब भी वक्त मिलता है मैं लिखने बैठ जाती हूं बस। गुहू ने अनमोल से बताया और अपनी डायरी बंद कर एक तरफ रख दिया।
 
काफी दिलकश अंदाज है आपके लिखने का, अनमोल ने गुहू से कहा
 
इतना सुनकर गुहू के होठों पर हंसी तैर गई और फिर देर तक दोनों के बीच बातों का सिलसिला चल पड़ा।
 
अक्सर शाम को या वीकेंड दोनों की मुलाकातें पार्क में होती रहतीं। लेकिन आज की शाम अनमोल थोड़ा उदास था। गुहू ने अनमोल से उदासी का कारण पूछा तो अनमोल ने बताया कि बुधवार की सुबह उसकी फ्लाइट है और उसे वापस जाना है। यह सुनकर गुहू का भी खिला-खिला चेहरा मुरझा गया।
 
अनमोल ने गुहू से कहा कि तुम अपनी ई-मेल का पता दे देना। मैं तुमको रोज मेल किया करूंगा। इस तरह हम रोज मिल लिया करेंगे।
 
गुहू ने मुस्कुराकर कहा कि रोज मेल? अगर तुम भूले किसी दिन तो? तो तुम्हें दो मेल करने पड़ेंगे सोच लो। और अगर मैं भूली तो मैं तुमको दो मेल करूंगी। 
 
धीरे-धीरे वक्त ने अपनी रफ्तार पकड़ ली और 3 साल गुजर गए। ई-मेल भी अनमोल कम ही करने लगा। अनमोल को वापस लौटते ही कंपनी में प्रमोशन जो मिल गया था और वह उसमें व्यस्त रहने लगा। कभी-कभी वह गुहू के ई-मेल का जवाब दे देता। इधर गुहू को भी एक जर्मनी की कंपनी में जॉब मिल गई थी। वह जब ऑफिस से लौटती, अपनी पेपर और पेन के साथ हो जाती।
 
बेटा जो तूने ये पन्ने भर रखे हैं न, इसे बाइंड करवा लेती तो ये किताबें बन जातीं। तू कहे तो मैं एक पब्लिशर से बात करूं? गुहू की मां ने गुहू से कहा। 
 
मां ये तो मेरी दिली-ख्वाहिश है। तू आज ही बात करना प्लीज। मां, मेरी अच्छी मां। मेरी प्यारी मां। आई लव यू मां। बस-बस, लेकिन बेटा मेरी भी तो तू बात मान ले। पहले तू अपना ख्याल रखेगी। देख तो कितनी दुबली होती जा रही है। चल, एक दिन मैं तेरा चेकअप करवाना चाहती हूं कि क्यूं तेरे चेहरे की रंगत उड़ती जा रही है। क्या बात है? तुझको ऐसा देख मेरा दिल बैठता जा रहा है।
 
ठीक है मां, मैं तेरे साथ चलूंगी। मुस्कुराती गुहू मां के सीने से लग गई और मां ने खूब लाड़-प्यार भी किया। 
 
आज ऑफिस से आते ही गुहू बिस्तर पर जा लेटी। मां जब ऑफिस से लौटी तो देखा कि गुहू बिस्तर पर सो रही थी। मां ने पास जाकर उसके सिर पर हाथ रखा तो बदन तप रहा था। मां ने डॉक्टर को फोन किया। डॉक्टर ने दवाएं दीं और कहा कि ये कुछ टेस्ट हैं, जो दो दिन बाद करवा लीजिएगा।
 
इधर रिपोर्ट में कैंसर आया। डॉक्टर ने कहा कि आखिरी स्टेज है और वक्त सिर्फ महीनेभर का। 
 
मां की आंखों के सामने अंधेरा छा गया और वह पागल-सी हो गई। समझ नहीं पा रही थी कि करे तो क्या करे? फिर उसने खुद को संभाला और घर की ओर चल पड़ी।
 
अब गुहू बिस्तर पर ही लेटे-लेटे कविताएं और कहानियां लिखती।
 
आज मां ने उससे कहा कि बहुत जल्द ही उसकी किताब छप जाएगी। गुहू बहुत खुश हुई।
 
इतना लिखती है तू आज। मुझे भी दिखा न कि लिखा क्या है?
 
गुहू ने डायरी मां के सामने रख दी।
 
लफ्जों में पिरोया है तुम्हें
लम्हों में बसाया है तुम्हें
गवाह हैं ये कोरे पन्ने
किस तरह तुम्हें चाहा है मैंने।
 
मां की आंखें भर आईं। मां ने गुहू से कहा कि क्या तू मुझे अनमोल के ई-मेल का पता देगी?
 
गुहू ने अनमोल की ई-मेल अपनी मां को दे दी।
 
दो हफ्ते बीत गए और गुहू की तबीयत बिगड़ती जा रही थी। उसे हॉस्पिटल में एडमिट करवाना पड़ा, जहां डॉक्टरों की कड़ी निगरानी थी फिर भी कोई सुधार नहीं उसकी तबीयत में। इधर कई दिनों से गुहू का कोई मेल न पाकर अनमोल परेशान हो रहा था। उसने गुहू को कई ई-मेल किए यह सोचकर कि गुहू नाराज हो गई होगी, पर कोई जवाब नहीं मिला।
 
अनमोल ऑफिस से आते ही सबसे पहले मेल चेक करता, लेकिन ये क्या? ये तो गुहू की मां का मेल? आश्चर्य से भर उठा और झट से चेक करने के लिए मेल खोलने लगा। पूरा मेल उसने कई-कई बार पढ़ा और ऑफिस से छुट्टी लेकर घर आ गया। उसने तय किया कि वो गुहू के पास जाएगा।
 
गुहू काफी कमजोर हो गई थी और दवाओं के असर से उसे नींद-सी रहती। ढलती शाम अलविदा कहने को बेचैन थी। ये शाम गुहू को न जाने कितनी यादों को पन्नों पर लिखने को मजबूर किया करती थी।
 
आज शाम जब गुहू ने बोझिल पलकें उठाईं तो सामने अनमोल खड़ा था।
 
अनमोल, अनमोल तुम? ये कोई खवाब देख रही हूं क्या मैं? या हकीकत है? मैं समझ नहीं पा रही हूं।
 
अनमोल एकटक उसे देखे जा रहा था।
 
तभी मां ने कहा कि गुहू, अनमोल तुमसे मिलने आया है और ये कोई सपना नहीं है। इसे मैंने ई-मेल किया था।
 
अनमोल आओ बैठो यहां। चेयर आगे बढ़ाते हुए मां ने कहा।
 
आज मैं बेहद खुश हूं। जिंदगी में जिसकी सारी ख्वाहिशें पूरी हो जाएं, ऐसे बहुत ही कम लोग होते हैं। अनमोल, मैं तुम्हें मरने से पहले एक बार देखना चाहती थी और तुम्हें देख भी लिया। अब मुझे चैन की नींद आ जाएगी। मैंने अपनी सारी बेचैनियों को पन्नों की पर्त में दबा तो दिया था, पर न जाने ऐसा क्या था, जो मुझे सहज नहीं होने दे रहा था। तुम्हें देखते ही वो सहजता खुद-ब-खुद ही आ गई। मैं निश्चित ही बहुत ही भाग्यशाली हूं।
 
सच कह रही हो गुहू तुम। अभाग्यशाली तो मैं हूं, जो तुम मुझे अकेला छोड़कर जा रही हो। मेरी आदत थी तुम, मेरी खुशियां, मेरा गम थीं तुम। मैं खुद को कैसे संभालूंगा, ये भी नहीं सोचा तुमने?
 
अनमोल ऐसा न कहो। सच पूछो तो मैंने सिर्फ तुम्हें ही सोचा है। मेरे एक-एक शब्द में सिर्फ तुम हो। मैं मरना नहीं चाहती थी और न ही मैं मरूंगी कभी। यूं कहो कि मैं मर ही नहीं सकती। मैं खुद को किताबों में समेटकर जा रही हूं। तुम जब भी मेरी किताब का कोई भी पन्ना पलटोगे, कोई भी नज्म पढ़ोगे तो मैं तुम्हें उसमें मिलूंगी। मैं तुमसे जुदा हो ही नहीं सकती। मेरी लिखावट एक किताब नहीं है, मेरी जिंदगी है जिसमें मैं सांस लेती रही। जिसमें मैं टूटकर बिखरती रही। जिसमें मैं गुलमोहर की तरह खिलती रही। जिसमें मैंने कभी धूप, तो कभी पीपल की ठंडी छांव महसूस की, चांदनी की नूर भर लाई। मैं तुम्हें अपनी जिंदगी सौंपकर जा रही हूं।
 
गुहू ने मुस्कुराते हुए अनमोल से कहा कि मैं तुम्हारी आदत थी न। तो आदत नहीं बदली जा सकती है।
 
अनमोल की आंखें भर आईं। 
 
अनमोल ने गुहू से कहा कि गुहू इतनी बड़ी सजा दोगी तुम मुझे। नहीं गुहू, ऐसा न करो। तुमने मेरा हर पल साथ दिया, भले ही मैं तुमसे मीलों दूर था, पर तुमने मुझे कभी दूरी का एहसास नहीं होने दिया। मेरे हर दर्द में तुम साथ थी, भले ही मैं तुम्हारे दर्द को समझ नहीं पाया। आज तुम यहां हो। मैं खुद को माफ नहीं कर पा रहा हूं। तुम मुझसे मिलने आना चाहती थी लेकिन मैंने क्या किया? मैंने अपनी मजबूरियों और हालात का पत्थर रख दिया तुम्हारे रास्ते में। तुमने एक बार नहीं, कई बार कोशिश की मुझ तक पहुंचने की, पर तकदीर मेरी कि उसने मुझे तुमसे मिलने नहीं दिया। अनमोल बिफरकर रो पड़ा।
 
गुहू ने अनमोल को संभालते हुए कहा कि अरे तकदीर भी तो कोई चीज होती है न जिसके आगे किसी का बस नहीं चलता। 
 
अनमोल, तुम्हें देखने के बाद मेरे जीने की तमन्ना फिर जाग उठी है और मैं फिर से हंसना चाहती हूं, उड़ना चाहती हूं अपनी उमंगों के साथ। लिखना चाहती हूं। मैं वो सब करना चाहती हूं, जो पहले करती थी लेकिन वक्त? ये वक्त ही तो नहीं है मेरे पास। मेरी एक तमन्ना पूरी कर दो। फिर मुझे उसी जगह ले चलो, जहां हम पहली बार मिले थे। थोड़ी देर के लिए ही सही, मैं जीना चाहती हूं।
 
हां-हां गुहू, हम जरूर चलेंगे। कल शाम को चलते हैं। अब तुम आराम करो। रात काफी हो गई है। गुहू ने दवा ली और वो सो गई। 
 
सुबह जब सब गुहू के कमरे में पहुंचे तो गुहू सो रही थी। आज जगाने पर भी वह नहीं जागी। गहरी नींद में सो गई थी और उसके चेहरे पर सुकून की झलक साफ दिख रही थी।
 
अनमोल ने गुहू को जगाते हुए कहा कि गुहू उठो, हमें एफिल टॉवर चलना है। उठो न, बहुत सो ली। अभी तो हमें बहुत कुछ करना है। कुछ तो बोलो। जब कभी मैं एक शब्द कहता था तो तुम्हारे जवाब में शब्दों की झड़ियां लग जाती थी। मैं जब कुछ न बोलता तो तुम एकदम खामोश हो जाती थी। लेकिन गुहू आज मैं कितना बोल रहा हूं, तुम क्यूं नहीं बोल रही? गुहू उठो न!
 
अब तो गुहू हमेशा के लिए खामोश हो गई थी अपने अधूरे ख्वाबों के साथ और अनमोल हाथ में उसकी किताब लिए!


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