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तुम्‍हारा आकाश

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- दिविक रमेश

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गाँव किराड़ी, दिल्ली में 1946 को जन्में दिविक रमेश अपने पहले कविता संग्रह 'रास्ते के बीच' से चर्चित हो गए। उन्हें गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार आदि दर्जनों पुरस्कार प्राप्त हुए। उनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ- रास्ते के बीच, खुली आँखों में आकाश, हल्दी-चावल और अन्य कविताएँ हैं। वर्तमान में मोतीलाल नेहरू कॉलेज, दिल्ली विवि के प्रचार्य पद पर कार्यरत हैं।

क्‍या सचमुच इतनी जगह थी
तुम्‍हारी गुफाओं में उम्‍मीद क

शायद वहीं सम्‍भालकर रखे होंगे
तुमने ये पंख
वरना नोंच लिए जाते
नोंच लिए गए हैं जैसे कितनों ही के

आज आकाश तुम्‍हारा है
और यह उड़ान भी
आकाश जिसका मुरीद है

कितने मुक्‍त तो दिख रहे हैं
तुम्‍हारे पाँव
राहत में मिली साँसों स
घुटी इच्‍छाओं की-सी राहें
अब निकल पड़ी हैं
जिनसे धाराओं-सी
देखो तो कैसे आ खड़े हैं सामने
ये सुंदर-सुंदर लक्ष्‍य
गबरू खान भाइयों से

खींच ली गई थी
जो जमीन तुम्‍हारे नीचे से
और फेंक दिया गया था
जिसे किसी कोने में पुरा
कथा के किसी पात्र-सा
आज देख रहा हूँ उसे लौटते
सम्‍भाल-सम्‍भाल रखते
तुम्‍हारे पाँव

बरसों बाद आज लौटेगा
काबुलीवाला
मेरा दोस्‍‍त अपने वतन को
ठूँस-ठूँस भर ली हैं उसने जेबें
शहनाइयों की मिठास से
खुशियों के जाने कितने जेवरात
उसने रख लिए हैं अपनी आँखों में
बस्‍तों का एक पूरा हुजूम
उसने सँजो लिया है जज्‍बातों में
उसके हाथों में कलम है
और सभ्‍यता की पुनर्रचना के लिए
एक बेहतरीन कागज

देखन
खिड़‍कियों की छलनियों के पीछे की
तुम्‍हारी आँखों कोला खड़ा करेगा वह
दुनिया के तमाम
दृश्‍यों के सामने रूबरू
जिन्‍हें फिर कभी कोई
जुर्रत नहीं कर सकेगा
छीनने की तुमसे
तुम्‍हारी ताकत के सामन

उड़ो कि इतना उड़ो
कि आदत हो जाए तुम्‍हारी आकाश

फूल-फूल जाए छाती जमीन की
तुम्‍हारी कामयाब उड़ानों पर

कि दौड़ पडे स्‍वागत में
चूल्‍हों की गंध औ
आकाशी सुगंध साथ-साथ।

साभार- गर्भनाल

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