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बेटी-माँ

सुरेश कुमार

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यह मेरी....
क्या नाम दूँ उसे कामवाली, मेड
माई, नौकरानी या कुछ बेहतर
'डोमोस्टिक हेल्प'- गृह सहायिका

ये तो नाम हैं
प्रचलित, प्रयुक्त व्यक्त करते हैं
श्रम‍जीविता का तथ्य
महीने के अंत में पाती हैं पगार
खटती हैं सुबह से शाम तक
औरों के घरों में अपना घर छोड़कर

ऐसी अनेक कायाएँ
दिखाई देने लगती हैं
सोसायट‍ी के गेट पर
सुबह से ही जैसे यही इनकी
नियति हो
सोच में पड़ जाता हूँ।

कैसी जीवट वाली हैं ये
सोते से जागत‍ा हूँ
सुनकर 'अंकल नमस्ते'
मुस्कराती हुई युवा-अ-युवा
श्रमजीवाएँ

मेरे घर भी आती है एक
ऐसी ही श्रमजीवा
कोमल, दुबली काया
स्वच्छ परिधान मंगल की प्रतीक
चेहरा शां‍त मातृत्व की गरिमा से मंडित
वह युवती लग जाती है
अपने काम में सफाई, बर्तन, कपड़े

मैं अखबार में डूबा
'अंकल, क्या खाओगे?'
'जो बना दोगी' प्रश्नोत्तर समाप्त
आधे घंटे बाद 'अंकल, खाना खा लो'

ऐसा भोजन जैसा मेरी अपनी
बेटी ने बनाया हो
पूरे मन से प्यार से
बाप के लिए

कौंधा मन में
यह भी तो बेटी है
मातृत्व का स्पर्श देती
अपने बच्चों की माँ है
तो सबके लिए माँ है
मेरे लिए बेटी-माँ है
उसे केअर देता हूँ
एक बाप की
रखता हूँ ध्यान उसका
बाप के समान

क्या दिव्य रिश्ता है यह
मानवीय संबंध-श्रृंखला की
एक उज्ज्वल कड़ी।

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