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प्रवासी साहित्य : तीन छक्के

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गर्भनाल

- हरिबाबू बिंदल
 

 
तब न समझती थी कभी, इस घर को अपना,
अब समझती है इस घर को, बस अपना-अपना।
बस अपना-अपना, नहीं कहने में चलती,
सुनना तो है दूर, रहे हम पर उबलती।
तब होते थे खुश, काम उनके करने में,
अब होते हैं भुस, हुकुम उनके भरने में।
 
खटती रहती रात-दिन, घर ओ किचिन में,
घर की‍ हर जरूरत अब, है उनके जहन में।
हैं उनके जहन में, नहीं अब मुझसे कहती,
छोटे-मोटे दु:ख, अकेले ही सह लेती।
तब कहते थे हम, हुकुम अब चलते उनके,
तब बाहर की वह, हुए अब हम बाहर के।
 
बैजयंती माला तब थी, अब वह ललिता पवार,
पहले वेलवेट थी जो, अब वह है दीवार।
अब वह है दीवार, छांव तब, अब घाम है,
मंद-मंद थी हवा, वही लू के समान है।
पहले शर्माती थी, अब वह इतराती है,
बोली तब गाने-सी, अब कानों चुभती है। 

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