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उठाओ हाथ में मशाल

- सुरेश शुक्ल 'शरद आलोक'

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मशाल की है मजाल
जल उठी है भोर से
ज्यों गर्भनाल!

कवि सम्मेलनों में
बैठकर यह सोचता गले में पहन कर हार
दाद कविता को मिली जो मंच पर
उसके पीछे कितनों के चले घर-बार!

मृत्यु का तांडव नृत्य करते
घूमते राक्षस यहाँ-वहाँ गद्दार!
कविता पर जो तालियों का शोर है
हजारों जनता की सामर्थ्य का जो जोर है
ताली को दो नहीं, बस एक हाथ चाहिए
उठा लो एक हाथ में मशाल!

करें कदम ताल
अन्याय को वेध दे अकाल!
गाँधी के संदेश से हल करें सवाल
माओ, नक्सली के नाम पर
आतंकियों की टोलियाँ नई-नई,
हाथ में चूड़ी पहने जो उठा नहीं सकते कुदाल?

अपनों का गला घोंटते
धरती माँ के वक्ष से संत‍ानों का करते कत्ल,
कितना घिनौना है
इनका समाज-आतंकवाद आंदोलन
पियो विवेक ज्ञान का पान
श्रम और लगन के बिना
कब तक चलेगा
धर्म और शक्ति के नाम पर आतंक?
प्रजातंत्र के बिना नहीं
कौन है स्वतंत्र-स्वच्छंद?

माँ नग्न घुमाई जा रही हम मौन हैं!
बहनों और निर्बलों को जला रहे हम कौन हैं?
विदेश के विरोध में उठाई बहुत मशाल
जुलूस ने किए दृढ़ संकल्प
अन्याय के विरुद्ध उठाओ आवाज
मानवाधिकार के बिना नहीं है शांति
पड़ोस में आग लगी बुझाएँगे
तभी हम अपना घर बचाएँगे
पड़ोसी भूखा हो शांति कहाँ पाएँगे?
बेमेल विवाहितों की तरह
हाथ पर हाथ बाँधे
राह ताकते कि अभी आ जाएँगे राम
दरगाह से निकल कर मौला कोई
पोछ लेंगे आँसुओं की धार
बह रही है बार-बार
सूजी आँखों का बनी श्रृंगार
नहीं अब और राम नहीं आएँगे?
विवेक ज्ञान की गंगा बहाएँगे
प्रेम के दीप हम जलाएँगे।
अन्याय-अंधकार को मशाल से
जीवन से दूर हम भगाएँगे।

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