गर्भनाल प्रवासी भारतीयों को अपनी धरती से जोड़ती ऐसी स्तरीय ई-पत्रिका है जिसने हिंदी के क्षेत्र में नए आयाम जोड़े हैं। इसमें प्रकाशित विभिन्न देशों में बसे भारतीयों की रचनाओं में अपनी माटी की महक साफ महसूस की जा सकती है। इसमें प्रवासी भारतीयों की गतिविधियाँ हैं तो पुरातन साहित्य की पहचान भी कायम है। गुजर चुके हिंदी लेखकों की रचनाएँ हैं तो नवोदित रचनाकारों की जमीन तोड़ती कृतियाँ भी शामिल हैं। संपादक श्री आत्माराम का यह प्रयास निश्चित ही सराहनीय है। इसी स्तरीय पत्रिका से दे रहे हैं हम कुछ सामग्री जो आपको अवश्य ही रुचिकर लगेगी।
डॉ. अंजना संधीर - हिंदी, अंगरेजी, उर्दू और गुजराती में लेखन करती हैं। देश-विदेश की पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। उर्दू से हिंदी एवं गुजराती में रचनाओं के अनुवाद भी प्रकाशित।
देवी नागरानी से मेरा परिचय प्रवासिनी के बोल के संपादन के दौरान हुआ। उनकी गजलों और कविताओं के विचारों ने मन को छू लिया था, लेकिन उनकी कर्मठता ने और भी प्रभावित किया। मुझे याद है वह भारत में थीं और ईमेल के जरिए उन्होंने तुरंत कविताएँ संग्रह हेतु भेजी थीं। यूएसए वापस आने पर टेलीफोन पर बातें होती रहती थीं, मूलतः सिंधी का लहजा और मिठास उनकी जुबान में है।
न्यूयॉर्क के सत्यनारायण मंदिर में कवि सम्मेलन-2006 में अपने कोकिल कंठ से जब उन्होंने गजल सुनाई तो महफिल में सब वाह-वाह कर उठे। किसी की फरमाइश थी कि वे सिंधी की भी गजल सुनाएँ और तुरंत एक गजल का उन्होंने हिंदी अनुवाद पहले किया और सिंधी में उसे गाया। सब लोगों को देवी की गजल ने मोह लिया। तो ये थी मेरी देवी से रूबरू पहली मुलाकात। हमने एक दूसरे को देखा न था, बस बातचीत हुई थी। मेरी कविता पाठ के बाद वो उठकर आईं, मुझे गले लगाया और बोलीं- अंजना, मैं तुम्हें मिलने ही इस कवि सम्मेलन में आई हूँ। इस तरह सखी भाव जो पैदा हुआ, वो यहाँ की भागती-दौड़ती जिंदगी में बराबर चल रहा है। कभी ई-मेल के जरिए तो कभी टेलीफोन पर।
प्रवासिनी के बोल छपकर आई तो उन्होंने उस पर एक छोटा संग्रह कम्प्यूटर के माध्यम से अंग्रेजी-हिंदी में मेरी तस्वीर के साथ, पुस्तक के कवर पर अपनी पंक्तियाँ जड़कर मुझे भेंट स्वरूप भेजा। इस पुस्तक के इंग्लिश लायब्रेरी द्वारा होने वाले समारोह में (9 दिसंबर 2006) शामिल नहीं हो पा रही थी, क्योंकि भारत यात्रा तय थी। मुझे याद है अपने व्यस्त कार्यक्रम में भी प्रवासिनी के बोल पर कार्य करती रही। एक गजल रिकार्डर में टेप करके मुझे दे गई कि मैं उस दिन वहाँ न रहूँगी, पर मेरी आत्मा उस दिन जरूर वहीं होगी। प्रवासिनी के नाम पर वह सुंदर गजल है। 'वादे-शहर वतन की चंदन सी आ रही है, यादों के पालने में मुझके झुला रही है।
'क्वीन पुस्तकालय में न्यू अमेरिकन प्रोग्राम के डायरेक्टर श्री फ्रेड गिटनर ने प्रवासिनी के बोल का विमोचन किया और मैंने देवी द्वारा लिखा प्रवासिनी के बोल नंबर-2 का विमोचन किया और उनकी गजल सुनवाई। देवी तन से भारत में थी और मन से ऑडिटोरियम में थीं। समर्पण, निर्मल मन, भाषा के लगाव का परिणाम आपके सामने है चिरागे दिल। देवी आध्यात्मिक रास्तों पर चलने वाली एक शिक्षिका का मन रखने वाली कवयित्री हैं, इसलिए उनकी गजलों में सच्चाई और जिंदगी को खूबसूरत ढंग से देखने का एक अलग अंदाज है। उनकी लेखनी में एक सशक्त औरत दिखाई देती है जो तूफानों से लड़ने को तैयार है।गजल में नाजुकी पाई जाती है, उसका असर देवी की गजलों में दिखाई पड़ता है। उदाहरण के तौर पर देखिए- 'भटके हैं तेरी याद में जाने कहाँ-कहाँ, तेरी नजर के सामने खोए कहाँ-कहाँ। ' अथवा 'न तुम आए न नींद आई निराशा भोर ले आई, तुम्हें सपने में कल देखा, उसी से आँख भर आई।' अथवा 'उसे इश्क क्या है पता नहीं, कभी शमा पर वो जला नहीं।
'देवी की गजलों में आशा है, जिंदगी से लड़ने की हिम्मत है व एक मर्म है जो दिल को छू लेता है। गजल संग्रह का शीर्षक चरागे दिल बहुत कुछ कह जाता है। अमेरिका की मशीनी जिंदगी में अपनी संवेदनाओं को बचाए रखना और अंग्रेजी वातावरण में हिंदी की गजलें कहना मायने रखता है। मैं दिल की गहराइयों से देवी नागरानी को शुभकामनाएँ देती हूँ। वो ऐसे ही और बहुत चराग रोशन करें, ताकि भाषा का कारवाँ चलता रहे।