तुम्हारी याद के मन्द-स्वर धीरे से बिंध गए मुझमें कहीं सपने में खो गए और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ अपने विस्मरण से खीजता बटोरता रहा रात को और उसमें खो गए सपने के टुकड़ों को
कोई गूढ़ समस्या का समाधान करते विचारमग्न रात अंधेरे में डूबी कुछ और रहस्यमय हो गई
यूं तो कितनी रातें कटी थीं तुमको सोचते-सोचते पर इस रात की अन्यमनस्कता कुछ और ही थी
मुझे विस्मरण में अनमना देख रात भी संबद्ध हो गई मेरे ख्यालों के बगूलों से और अंधेरे में निखर आया तुम्हारा धूमिल अमूर्त-चित्र
मैं भी तल्लीन रहा कलाकार-सा भावनाओं के रंगों से रंजित इस सौम्य आकृति को संवारता रहा तुमको संवारता रहा
अचानक मुझे लगा तुम्हारा हाथ बड़ी देर तक मेरे हाथ में था और फिर पौ फटे तक जगा मैं देखता ही रहा तुम्हारे अधखुले होठों को कि इतने वर्षों की नीरवता के उपरांत इस नि:शब्द रात की नि:शब्दता में शायद वह मुझसे कुछ कहें शायद वह मुझसे कुछ तो कहें।