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परित्यक्ता - भाग- 2

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हमें फॉलो करें परित्यक्ता - भाग- 2
- कुसुम सिन्हा
गतांक से जारी...

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कितनी प्यारी-सी है पर कितनी उदास लगती है। उसकी उदासी का क्या कारण हो सकता है भला? लड़की ने उसी उदासीन भाव से कहा- नहीं। वंदना ने फिर पूछा- तुम्हारा नाम क्या है? नूतन। वह फिर चुप हो गई।

वंदना ने पूछा- मम्मी ने मना किया है? बुलाओ तो मम्मी को? उसने थोड़ी रुआँसी आवाज में कहा- मम्मी तो मर गई। उसकी बात सुनकर वंदना को एक धक्का-सा लगा तो यही कारण है उसकी उदासी का? उसका मन करूणा से भर उठा। यह नन्ही-सी जान बिना माँ के कैसे जीती होगी?

अतुल का पिता नहीं है, नूतन की माँ नहीं है। दोनों ही दु:खी। कितना भी प्यार करे वंदना परंतु अतुल का बालमन पिता के अभाव को महसूस तो करता ही होगा। वह इस अभाव को कैसे दूर कर सकती है? उसका मन फिर दु:खी हो गया। अमर को क्या अधिकार है कि वह उसके बेटे को इस सुख से वंचित करे। वह तो रो भी नहीं पाती है। अगर अतुल के सामने रोती है तो वह भी उसके साथ रोने लगता है और माँ के सामने रोने पर वे स्वयं विचलित हो जाती हैं।

उन्होंने तो अपना बेटा खोया था। वंदना से भी ज्यादा बुढ़ापे में जब बच्चों को माँ की देखभाल करनी चाहिए वह उन्हें छोड़ गया है बिना यह सोचे कि उनका क्या होगा? उनकी पीड़ा तो वंदना से भी बड़ी है। शायद वे सोचती होंगी कि बिछावन पर जाकर ‍वंदना रोती होगी इसलिए एक दिन उन्होंने कहा- मैं भी तुम्हारे पास सो जाऊँ। तुम्हे तकलीफ तो नहीं होगी? वंदना ने कहा- नहीं-नहीं मम्मी इतना बड़ा तो ‍बिछावन है। एकांत में होने का सुख भी उससे छिन गया था, पर उसे संतोष था कि माँ ने ऐसा उनके लिए ‍ही किया था।

उस दिन रविवार था और अतुल को आइसक्रीम खिलाने के लिए वह पास के ही आइसक्रीम पार्लर ले गई थी। अचानक वहाँ उसने देखा कि नूतन एक व्यक्ति का हाथ पकड़कर पार्लर में घुस रही थी। उसने हँसते हुए वंदना का हाथ पकड़ लिया और उस व्यक्ति से बोली कि देखो पापा यही वे आंटी हैं ‍जिनसे मैं रोज बातें करती हूँ। वंदना ने नमस्ते किया और बोली- मेरा नाम वंदना है। आपके घर के पाँच मकान आगे रहती हूँ। नूतन की मम्मी के विषय में जानकर दु:ख हुआ।

नूतन के पिता राजीव ने लंबी साँस ली और बोले- किस्मत की कोई दवा तो है नहीं क्या किया जा सकता है। वंदना ने कहा- वह तो है। फिर सोचकर कहा- मैं कह रही थी कि अगर नूतन स्कूल से सीधा मेरे घर आ जाए तो दोनों बच्चे साथ खेलेंगे। फिर मम्मी तो है ही दोनों को शायद अच्छा लगे। अगर आपको ऐतराज न हो तो। नूतन का भी मन बहल जाए और अतुल भी खुश हो जाए। राजीव ने कहा- इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है।

नूतन उसके घर आने लगी। वंदना यह देखकर सुखद आश्चर्य में डूब गई कि नूतन और अतुल एक-दूसरे का हाथ पकड़कर नाच रहे हैं। माँ ने हँसते हुए कहा कि- जब से नूतन आई है अतुल ने तुम्हें एक बार भी नहीं खोजा। वंदना ने लक्ष्य किया कि नूतन शायद कितने दिनों बाद खिलखिल‍ाकर हँस रही थी। उसे बहुत अच्छा लगा कि शाम के एकाध घंटे नूतन भी बहली रहेगी और अतुल भी।

उसी दिन से यह क्रम चल पड़ा था। नूतन अतुल को पढ़ाती- बोलो ए फॉर एप्पल। अतुल कुछ न समझकर हँसता रहता और नूतन कहती बुद्धू और दोनों हँसते। अतुल की अमर की तरह आँखें बंद करके हँसने की आदत थी। अपनी खुशी व्यक्त करने का यही तरीका उसे आता था। राजीव भी जब-तब आने लगे थे। एक दिन रात को दरवाजा पीटने की आवाज आई। कोई जोर-जोर से दरवाजा पीट रहा था। माँ ने बगल की खिड़की खोलकर पूछा- कौन है?

मैं राजीव हूँ। नूतन को तेज बुखार है। जरा आप उसके पास रहती तो मैं दवा ले आता। अभी आई बेटा। माँ ने वंदना से कहा- दरवाजा बंद कर लो मैं राजीव के यहाँ जा रही हूँ। वंदना ने कहा- मैं भी चलती हूँ। वंदना को नूतन से बहुत प्यार हो गया था।

अतुल को भी वहीं सुला दूँगी। नूतन को बहुत तेज बुखार था। वंदना उसके सिर पर पानी की पट्टी रखने लगी थी। राजीव के आते-आते बुखार काफी कम हो गया था। सुब ह के चार बजने तक नूतन का बुखार 100 तक पहुँच गया था। तो वंदना अपनी पीठ सीधी करने के लिए उसकी बगल में लेट गई। कब उसे नींद आ गई पता ही नहीं चला।

नूतन उसके गले में बाँहें डालकर खर्राटे भरकर सो रही थी। राजीव आए और नूतन के सिर पर हाथ रखकर यह देखने की चेष्टा करने लगे कि नूतन का बुखार अब कैसा है। इतने में उनका हाथ वंदना के सिर से छू गया। इस स्पर्श से वंदना की नींद खुल गई और वह जाग गई। यह सोचकर संकोच से गड़ गई कि राजीव क्या सोचते होंगे कि दूसरे के घर में यह नींद कोई संकेत तो नहीं है?

उसने सकुचाते हुए कहा- चिंता मत कीजिए उसका बुखार अब काफी कम है। लेकिन राजीव कुछ और ही सोच रहे थे। मारे कृतज्ञता के राजीव की आँखों में आँसू भर आए थे। बोले- आज आप लोग नहीं होते तो क्या होता? यही तो मेरे जीने का सहारा है नहीं तो मेरी जिंदगी में और है क्या? वंदना ने कहा- आप ऐसा क्यों सोचते हैं? आदमी ही आदमी के काम आता है। राजीव को लगा कोई बहुत अपना हो और उसके सुख-दु:ख में साथ निभाने का जैसे विश्वास दिला रहा था। (क्रमश:)

साभार- गर्भनाल

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