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भिखारी (अंतिम कड़ी)

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हमें फॉलो करें भिखारी (अंतिम कड़ी)
क्या बेकार की बातें करते हैं आप? कुछ पता तो है नहीं और चले बतियाने? सुनहरीलाल बदमिजाज घोड़े की तरह बिदक गया

तो क्या सिर्फ विदेश घूम लेने से ही सब कुछ पता हो जाता है?’ रजनीश ठाकुर पीछे हटने वालों में से नहीं था। अरे हमने भी किताबें पढ़ी है। साले गोरे हुए तो क्या, हमसे दिमाग में तो पीछे ही रहेंगे?

आप लोग कब किसी चीज को पॉजिटीव लेना शुरू करेंगे? हमें उनसे सीखना चाहिए न कि उलजलूल तुलना करके अपनी भड़ास निकालने का बेकार का प्रयत्न।‘
अगर विदेश आपको इतना ही प्रिय है तो विदेशी मेम से डर क्यों लगता है?’व्यक्तिगत बातों को लाकर आप अच्छा नहीं कर रहें हैं। मैं कहे देता हूँ वरना..
वरना क्या कर लेंगे आप? हमें सूली पर चढ़ा देंगे? अरे पैसे की नवाबी तो खूब देखी है। बिना पैसे के रह के देखोगे तो जानोगे कि देश अच्छा या फिर विदेश?
सुनहरीलाल चिढ़कर बोले- मैं तो वे बातें बताता हूँ जो अच्छी है क्योंकि अच्छी बातें सीखनी चाहिए। ऐसा तो मैंने कभी नहीं कहा कि वहाँ कुछ भी खराबी नहीं है‘ फिर मामला मुश्किल से संभल पाया। सुनहरी लाल का मन खट्टा हो गया

घर के पास पहुँचते ही उस बूढे भिखारी ने हाथ फैला दिए। वे खीजकर घर के अंदर चले गए। गुस्से में बैठे टेलीविजन पर समाचार देखने लगे तभी बेटे का फोन आया।

डैड इस बार ‘विंटर विकेश’ में घर नहीं आ पाऊँगा। मुझे कुछ काम है। फिर ‘फाइनल एक्जा’ भी करीब ही है।‘

सुनहरी लाल दलील देते रह गए, लेकिन उनके बेटे का दिल नहीं पसीजा। लगा कि खून के रिश्ते में दरार पड़ चुकी थी। विदेशियत‍में भारतीयता का मोल कौड़ी का रह गया था। उनकी क्या गलती थी? बेटे को उनका आचार व्यवहार गँवारू प्रतीत होता था। वे चाहकर भी विदेशी रंग में उस तरह नहीं ढल पाते थे जैसा बेटे की आशा थी। होते भी कैसे? बचपन के संस्कार मिटाए नहीं मिट सकते थे। वे दूसरे ही दिन पुणे के लिए रवाना हो गए थे। बेटी से मिलकर उन्हें थोड़ी प्रसन्नता हुई। वह पढ़ाई में भी अच्छा कर रही थी जो उनके लिए संतोष की बात थी। कुछ दिनों तक मिल के काम में व्यस्त रहे। लेकिन चंचल मन फिर भी परेशान रहा। वे नवगछिया आ गए तो यार-दोस्त फिर उसी गर्मजोशी से मिले। इसी गर्मजोशी ने उन्हें बाँधकर रखा था, वरना वे विदेश में ‘सेट’ होने को भी राजी थे।

यह बात उन्हें भी तो खटकती थी कि चाहे पराए देशों ने कितनी भी प्रगति कर ली हो लेकिन संबंधों में आत्मीयता कम ही होती है। बड़ा ही व्यवसायिक रिश्ता होता है। जैसे बाप-बेटे के बीच भी लेन-देन ने दूरी बना रखी हो। इसलिए इस बार वे कुछ ज्यादा ही हिल मिल रहे थे। यहाँ तक कि रजनीश ठाकुर का व्यंग्य भी हँसी में उड़ा दे रहे थे

‘सुना है कि वहाँ अपने संबंधी के घर भी जाअओ तो अपना इंतजाम करके जाना पड़ता है। अरे भाई, अपने भाई-बंधुओं के लिए तो दिल में जगह होनी चाहिए घर क्या चीज है?

‘भाई ऐसा है कि छोटे-छोटे फ्लैटों में रहने वालों के लिए दिक्कत आ ही जाती है। फिर उन्हें जब परेशानी महसूस नहीं होती तो खामखाँ परेशान क्यों हो रहे हैं‘ सुनहरीलाल ने लगभग समझाते हुए कहा - एक तरह से यह अच्छा भी तो है। समझों आप के घर मेहमान आए और आपको उनके रहने आदि की व्यवस्था न करना पड़े तो आपको क्या बुरा लगेगा?

उस दिन सुनहरी लाल को अच्छा लगा। अपनापन का बोध हुआ था। यह बोध सुखकर होता है। इसलिए घर आकर नौकरों पर भड़के नहीं। नौकरों को भले ही अजीब लगा हो, लेकिन सुनहरीलाल को सबकुछ अच्छा लग रहा था। ऐसा प्रतीत होता था कि उनके खयालाती परिवर्तन का दौर आ चुका था।

अगली छुट्टी में पुत्र राजकुमार का न आना उन्हें बहुत खटका। विदेश जाकर उससे मिलना चाहते थे लेकिन सर्दियों में विदेश जाना उनके बस की बात नहीं थी। मन मसोसकर रह गए। गर्मी आते ही बेटे से मिलने की इच्छा तीव्र हो गई और मुंबई जाने की तैयारियाँ करने लगा। तभी बेटी के काँलेज के प्रधानाचार्य का तार आया। उन्हें शीघ्र बुलवा भेजा था। सुनहरीलाल का दिल तेजी से धड़कने लगा था। आशंका एक बड़ी लाईलाज बीमारी होती है। हवाईपत्तन से सीधे कॉलेज पहुँचे और प्रधानाचार्य के कमरे में घुसते ही बोले- क्या बात है प्रधानाचार्य जी।

‘आप तशरीफ रखें। क्या लेंगे आप चाय या कॉफी?

’हम कुछ भी नहीं लेंगे जब तक आप बता नहीं देते कि आपने अचानक इस तरह हमें क्यों बुलवाया है? सुनहरीलाल अधीर होते हुए बोले।

‘आपकी बेटी अस्पताल में है, इसलिए।‘

क्यों क्या हो गया उसे? कहाँ है? कैसी तबीयत है अब उसकी?’ और प्रश्नो की झड़ी लगा दी सुनहरीलाल ने

आप घबराए नहीं। वह अब ठीक है और डरने की कोई बात नहीं है। अगर आप धैर्य रखें तो हम इत्मीनान से बातें कर सकते हैं। सेठ सुनहरी लाल को तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि आखिर यह कैसी विपत्ति आ गई थी? वे प्रधानाचार्य को मूक बने देखते रहे और सुनते रहे। उनकी बेटी ने खुदकुशी करने की कोशिश की थी। हाथ की नस काट ली थी। काफी खून बह गया था। समय से अस्पताल पहुँच जाने से स्थिति नियंत्रण में थी। कारण की छानबीन चल रही थी। रूपा कुछ भी बताने से इंकार कर रही थी। चंचल मन को काबू में रखना मुश्किल था। किंतु इस समय अनिष्ट सोचने का वक्त नहीं था। बेटी के पास जल्द से जल्द पहुँचना था। बिना एक भी पल गँवाए प्रधानाचार्य के साथ हस्पताल को रवाना हो गए। रास्ते भर अनेकों प्रकार की अनबूझ आशंकाओं ने उन्हें घेरे रखा। हस्पताल में रूपा की सूरत देखकर उन्हें रोना आ गया। गुलाब की सूखी पंखुडि़यों की तरह मुरझा गई थी। अभी कुछ दिन पहले की ही बात थी। उसे हँसता खेलता छोड़कर गए थे और अब आखिर ऐसी कौन सी मुसीबत हो सकती है, जिसने रूपा को इतना बड़ा कदम उठाने पर मजबूर कर दिया? कोई छोटी बात तो नहीं ही थी। आशंका की काली चादर से ढँके मूक बन गए । बोल नहीं फूट रहे थे। बेटी के सिरहाने बैठ उसके सिर को सहलाते कितने ही मिनटों तक चुप बैठे रहे और रूपा उनकी गोद में सिर रखकर रोती रही।

सेठ सुनहरी लाल को अपने पैरों तले जमीन खिसकती नजर आ रही थी। उस स्थिति से उबरने में उन्हें थोड़ा वक्त लगा। सोचा, इस समय गुस्सा करने से काम बिगड़ सकता था। इसलिए कुछ नहीं बोले और बेटी को सांत्वना देते रहे। लेकिन इस घटना के बाद रूपा को कॉलेज में रखना नामुमकिन था। पुणे में रखना भी उचित नहीं जान पड़ा तो नवगछिया लेकर आ गए। लोगों में बातें होने लगी तो सुनहरीलाल उसे लेकर बंगलोर चले गए। बड़ी मिन्नत के बाद रूपा गर्भपात के लिए राजी हुई। उसके स्वस्थ होने के बाद वा पुन: नवगछिया के नए घर में रहने लगे। यहाँ शहर से दूर कुछ तो शांति जरूर थी। लेकिन रूपा अब वह रूपा नहीं रह गई, जिसे सुनहरीलाल जानते थे। वह मासूम बच्ची अब अचानक ही वयस्क हो उठी थी। मन का वैद्य बीमार हो, तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता। सलवटें पड़ी चादर की तरह उसके दिल में कई पड़ाव आकर ठहर गए थे। हर बार उसे उन्ही पड़ावों पर आकर रूक जाना पड़ता था। वे केवल दु:ख का अहसास ही देते थे। उसे हर बार रूककर आँसू बहाकर उनसे जूझना पड़ता था। इसलिए अब वह पहले की तरह पापा से भी हँसती-बोलती नहीं थी। उसकी खामोशी सुनहरीलाल के लिए एक बड़ा सदमा था

इस स्थिति से उबरने के लिए उन्होंने रूपा को विदेश घुमा लाने का निर्णय किया ताकि उसके मन पर पड़ा बोझ कुछ कम हो जाए। आनन-फानन में तैयारी करके बेटे के पास चल पड़े। यह सोचते हुए कि न केवल रूपा का मन बहलेगा बल्कि उन्हें भी शांति मिलेगी। बेटे से बात कर वह भी अपने आपको सांत्वना दे पाएँगे

बड़ी मुश्किल से सुनहरीलाल अपने आप पर काबू कर पाए। मुसीबत की इस घड़ी में एक दोस्त बनकर बेटी को आसरा देने लगे। रूपा के लिए वह सब कुछ कहना आसान नहीं था लेकिन ऐसा कदम उठाने के बाद उसे बताना ही पह़ा कि वह पेट से है। श्याम से उसकी मुलाकात कॉलेज के एक पिकनिक के दौरान हुई थी। पहली नजर में वह ठीक-ठाक ही लगा था। देखने-सुनने में भी अच्छा था। स्वभाव से गंभीर और जीवन को गहराई से समझने वाला था। चंद महीनों में ही दोस्ती गहरा गई और वे शादी कर घर बसाने के सपने देखने लगे। यौवन की चिलचिलाती तपन में दोनों पिघल गए। विश्वास की डोर से बंधी उसकी दोस्ती ने कभी अनिष्ट की कल्पना नहीं की थी। लेकिन जब श्याम को पता चला कि वह गर्भवती है तो उसने न केवल शादी से साफ इंकार कर दिया बल्कि यह आरोप भी लगा दिया कि वह किसी और का पाप उसके सिर पर मढ़ने की कोशिश कर रही थी। उसके रोने सिसकने का कुछ असर नहीं हुआ उस पर। कसमें-वादे सभी रेत की दीवार की तरह क्षण भर में ही ढह गए। टूटी आस्था ने उसे तोड़ दिया। उपर से उसके द्वारा लगाए गए लाँछन ने उसे अधमरा कर दिया। उसने बड़ी बेदर्दी और बेअदबी से कहा कि जो लड़की शादी से पहले मेरे साथ सो सकती है, उसका क्या भरोसा? इसी तरह किसी अऔर के साथ भी। ऐसे में उसके पास और कोई चारा नहीं था। इसलिए उसने अपनी जिंदगी की डोर को ही काटने का निर्णय ले लिया। वह तो सफाई करने वाली महरी ने समय पर होस्टल वार्डन को सूचित कर दिया वरना उसके जीवन की डोर टूट चुकी होती।

‘डैड, मैं आपको बताने ही वाला था कि मैंने एंजेलिना के साथ रहने का फैसला कर लिया है। वह अब मेरे साथ ही यहाँ रहती है। बार में नौकरी करती है और उसे रहने की दिक्कत होती थी‘ घर में घुसते ही राजकुमार ने कहा तो मानो सुनहरी लाल को काटो तो खून नहीं। वह सोफे पर धम्म से बैठ गए
बेटे की शादी होगी, नए मकान में बेटे बहू के प्रवेश पर बड़ा सा जलसा होगा, बेटी और दामाद से घर रोशन होगा, नाती-पोते से आँगन चहचहा उठेगा, सब का सब धरा रह गया। उनके सपने और सभी अरमान किसी चक्रवात सुनामी में बहकर गायब हो गए। बचा था उनका भारी मन और पापी शरीर जो अपमान, बेइज्जती और जिंदगी भर के दु:खों को भोगने पर विवश था। अब वें किसको बताए कि उनके सपनों का संसार चकनाचूर हो चुका था। रूखे मन से दूसरे ही दिन हिंदुस्तान रवाना हो गए। बेटे ने भी रोकने का प्रयत्न नहीं किया, बल्कि बोला कि उनके वहाँ रहने से उन सबको परेशानी ही होगी। फिर वे एंजेलिना को पसंद नहीं करेंगे तो बेकार ही मनमुटाव का वातावरण किसी के लिए अच्छा नहीं होगा। रूपा को कुछ दिन के लिए छोड़ना उचित समझकर उसे वहीं छोड़ नवगछिया वापस आ गए। कई दिनों तक महफिल में न जा सके। किस मुँह से जाते। कोई कुछ पूछ बैठता तो वे क्या जवाब देते? घर में घुसे रहते और अपने भाग्य को कोसते रहते थे

एक दिन महफिल ही उनके घर आ धमकी। वे हक्के-बक्के रह गए। हड़बड़ी में कुछ इंतजाम भी न कर पाए। लेकिन किसी ने भी उसके दिल को चोट नहीं पहुँचाई, बल्कि सभी उनके दु:ख में शरीक होकर उन्हें सांत्वना देने लगे। यहाँ तक कि रजनीश ठाकुर ने भी उनके घावों पर मरहम लगाकर उनकी हिम्मत बढ़ाई। दोस्तों ने दोस्ती निभाई। सेठ जी बड़ी मुश्किल से आँसू रोक पाए। सच का सामना इससे पहले नहीं हुआ था। अनजान दुनिया को अपना मान बैठे थे। एक बार सब्र का बाँध टूट ही गया तो रजनीश ठाकुर का काँधा था।

उनके जाने के बाद वे सोचने लगे कि क्या यही सोचकर उन्होंने तिनके-तिनके जोड़ा था और इतना बड़ा व्यवसाय खड़ा किया कि आज उसका वारिस भी न होगा। न बेटा न बेटी कोई भी इस लायक नहीं कि उसे देखकर खुशी होती हो। दोनों बच्चों के लिए क्या नहीं किया उन्होंने, लेकिन वे भी कुछ तो नहीं दे सके। वे भिखारियों से घृणा करते रहे, लेकिन आज उनसे बड़ा कौन भिखारी था? पैसे की दौलत तो उनके पास इफरात में थी लेकिन खुशी की दौलत नदारद। उनसे अच्छा तो वह भिखारी था जो उनके दरवाजे के बाहर भी सुख की नींद सोता था। रात भर करवटे बदलते रहे, इस आस में कि उस भिखारी की तरह उन्हें भी चैन की नींद नसीब हो

सुबह तड़के ही उठ गए। उस दिन उन्हें उस भिखारी से सहानुभूति हो रही थी। वे उसे कुछ दान देने को उत्सुक हो उठे और बाहर निकल पड़े। हाथ में पाँच रूपए का नोट लिए दरवाजे पर पहुँचे तो पता चला कि वह भिखारी रात में ही चल बसा था। लोग-बाग उसकी लाश की बगल से नाक-भौं सिकोड़े निकल जा रहे थे। सुनहरीलाल इस छोटे से सुख से भी महरूम हो गए। वे निराश और हताश वहीं फुटपाथ पर बैठ गए और आने-जाने वालों को अजनबी निगाहों से घूरते रहे। पुलिस और नगर पालिका वाले उस भिखारी की लाश ले जाने लगे तो उसके बिस्तरे से पैसों की झनझनाहट हु। हिसाब लगाया तो करीब सवा लाख रूपए मिले। सेठ सुनहरीलाल यह सुनकर हैरान रह गए। वे सोचते रहे कि कौन भिखारी था और कौन सेठ?

समाप्‍त :

(सा्भार : गर्भनाल)

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