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भिखारी ( दूसरी कड़ी)

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हमें फॉलो करें भिखारी ( दूसरी कड़ी)
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- विश्‍वजीत कुमार
फिर उनके विदेश भ्रमण के किस्से भी बहुत मशहूर थे। यार-दोस्तों के बीच एक बार शुरू हो जाते तो फिर रूकने का नाम ही नहीं लेते थे। सुनने वाला थक जाए, लेकिन वे सुनाते कभी नहीं थकते थे। सुनहरीलाल अक्सर इस बात का जिक्र करते थे कि यूरोप में भिखारी नहीं होते। वहाँ कोई इस तरह से भीख माँगता दिखाई नहीं देता था। वे कई बार यूरोप हो आए थे। कभी काम के सिलसिले में तो कभी घूमने के मकसद से। जब कभी विदेशों की बात चलती तो उनसे कोई जीत नहीं सकता था!

‘वहाँ की बात ही निराली है। क्या सफाई, क्या व्यवस्था और लोगों में तहजीब, बस दिल प्रसन्न हो उठता है। हमारे देश के लोगों में तो अब तक जूते-कपड़े पहनने की भी तहजीब नहीं है।‘

हमने विदेश कभी देखा नहीं, लेकिन सुनते आए हैं। पर, अपनी मिट्टी की सौंधी महक वहाँ नहीं मिल सकती हैमुसद्दीलाल फलसफे देने वाले मास्टर की तरह बोलता

‘ऐसा न कहो मुसद्दीलाल। तुम कभी गए नहीं इसलिए ऐसा कह रहे हो। एक बार जाकर घूम आओ, फिर ऐसी बातें बातें कभी नहीं करोगे। सुनहरीलाल अपनी बात मनवाने की पूरी कोशिश करता।

सुना है ’बाथरू’ जाकर धोते नहीं हैं। कागज से पोंछ लेते हैं। ठीक से नहाते भी नहीं हैं। एक टब में गरम पानी भर लिया और साबुन लगाकर घुस जाते है। फिर बाहर निकलकर तौलिये से पोंछ लेते हैं। गंदे लोग हैं।‘

रजनीश ठाकुर का तर्क ऐसा ही होता था जिसे सुनकर कोई भी बिना हँसे नहीं रह सकता थाnमजाक बनाना आसान है, लेकिन उनकी बराबरी करना हमारे बस की बात नहीं है। रहन-सहन, खान-पान, सुख-सुविधाओं में उनकी बराबरी करने में हमें पचासों साल लग जाएँगे।‘

सुनहरीलाल अपना तर्क देता था और फिर उनका विदेशी बखान शुरू हो जाता था। इतना तो अवश्य था कि जितने भी लोग वहाँ होते, वे एक बार विदेश जाने की कल्पना में अवश्य डूब जाते थे। और सोचते कि काश उन्हें भी सुनहरी लाल की तरह विदेश जाने का मौका मिल जाता?

सुनहरीलाल सिर्फ विदेश की बातें ही नहीं करते थे बल्कि उसके रहन-सहन में भी इसका खासा प्रभाव देखा जा सकता था। कोट-पैंट के साथ हमेशा टाई बाँधना जहाँ लोगों को अटपटा व अनजाना लगता था, वहीं उन्हें इसमें गर्व महसूस होता था। अदब से बोलना, सॉरी व थैंक्यू का बराबर इस्तेमाल उन्हें अवश्य ही आम आदमी से अलग करता था। वरना हाँ जी, ओके जी, अच्छा जी के अलावा और कुछ बोलने वाले मिलते हैं क्या? रोटी भी काँटे चम्मच से खाना उनकी विदेशियत का बखान करता था। अब बेटा विदेश में पढ़ाई कर रहा था जो उनकी शान को दोगुना करता था। लेकिन बेटे की शादी किसी विदेशी मेम से हो जाए यह सुनकर घबरा जाते थे। वे अपनी पसंद से एक सुंदर सी बहू लाने का सपना देखते जो उनकी हर सुख-सुविधा का खयाल रख सके। इस दोहरेपन से उन्हें छुटकारा नहीं मिला था। शरीर और मन विदेशी हो चुका था, लेकिन दिल देश में ही बसा हुआ था।

इस बार वे नवगछिया आए तो उन्हें एक नई मुसीबत से सामना करना पड़ा। उनके घर के अहाते के ठीक बाहर फाटक के पास सड़क से लगे फुटपाथ पर एक बूढ़ा भिखारी अपना आसन जमा चुका था। घर से बाहर निकलते वह दिखाई दे जाता था। सुनहरीलाल को उसका चेहरा देखना अपशकुन लगता था। वे इससे बचना चाहते थे। लेकिन भिखारी तो भिखारी होता है और ऊपर से इतना बड़ा सेठ। उनके नजर आते ही हर प्रकार की दुआएँ देता कटोरा उठाए खड़ा हो जाता। झुकी कमर के बावजूद उनके पीछे पड़ जाता। ‘ईश्वर आपको खुश रखे। इस गरीब को एक आठ आने दे दो बाबा। जीवनभर आपका गुण गाऊँगा। आपके बच्चे फले-फूले। आपको भगवान हर मुसीबत से बचाए। सुनहरीलाल नाक-मुँह सिकोड़कर बगल से निकल जाते। हटो, हटो रास्ता दो। करीब नहीं आना। जाओ भागो। पता नहीं कितने रोग पाल रखे हैं। अरे ड्राइवर, भगाओ इसे। स्साले काम तो कुछ करते नहीं, कटोरा लिए अपना रोना रोते रहते हैं‘ उनके खीज का कारण यह भी था कि वह घर के समीप ही अपना डेरा जमा बैठा था। उन्होंने अपने नौकरों से कहकर कई बार उसे भगाने की कोशिश की लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ। उन्होंने कई बार नगर पालिका को गुहार लगाई लेकिन किसी ने इसकी सुधि नहीं ली। एक दिन वे गुस्से में थे। उन्होंने दूर से ही चिल्लाकर उस भिखारी से कहा

तुम्हें इस शहर में और कोई जगह नहीं मिली? कहीं और जाकर बसेरा करो।‘ बाबूजी हमारा क्या बसेरा? हम तो जहाँ बैठ गए वहीं बसेरा बन जाता है। उस बूढ़े ने जवाब दिया।

‘इनको समझाना भी टेढ़ी खीर है‘ सुनहरीलाल भुनभुनाते हुए घर के अंदर चले गए। उस दिन के बाद, उन्हें उस भिखारी से और भी घृणा हो गई थी। सुबह टहलने के लिए भी कार से निकलते और कुछ दूर जाकर टहलना शुरू करते थे। इस बार दस दिन के बाद ही थाणे निकल गए। उनका दिल नहीं लगा। मुंबई होकर विदेश जाना था। अबकी बार अमेरिका का चक्कर भी लगा लेना चाहते थे पूरी तैयारी के साथ जाना था। विदेशों में उनके पसंद का खाने-पीने का सामान कम ही मिल पाता था तो गट्ठर बाँधकर ले जाने की आदत थी। इस बार वह भी नहीं कर पाए सोचा चलो मुंबई में खरीद लेंगे। कई महीने विदेश भ्रमण के बाद हिंदुस्तान में उन्हें अव्यवस्था दिखाई देती थी। हर तरफ आदमी ही आदमी, भीड़, हाय-तौबा और अफरा-तफरी। जिधर देखो गंदगी ही गंदगी दिखाई देती थी।

जानते हैं आप लोग। यदि कुत्ता भी टट्टी कर दे तो उसे उठाकर ‘डस्टबि’ में डाल आते हैं वहाँ के लोग। जबकि यहाँ हमारे कुत्तों के शौकीन उन्हें सड़क पर टट्टी करवाने ले जाते है जउसे नगर पालिका को और कोई काम नहीं। फिर जब पैर पड़ जाए तो प्रशासन को गाली देते हैं।

सुनहरीलाल ने अपने वक्तव्य का आगाज किया

मैंने तो सुना है कि वहाँ भी भिखारी होते हैं। हाँ वे थोड़े डिग्निफायड रूप में पैसे माँगते हैं, जैसे गाना सुनाकर या फिर अंग्रेजी बोलकर ‘कुड यू हेल्प मी प्लीज’
रजनीश ठाकुर का ज्ञान गरजा। उसे पिछली बातचीत कुछ अच्छी नहीं लगी थी। इसलिए पिछले कई महीनों से उसने अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाएँ पढ़कर विदेशों के बारे में खासी जानकारी इकट्ठी कर ली थी। हर बार मुँह की खाना अच्छा नहीं था। इसलिए इस बार वह तैयार था। उसने तय कर लिया कि था कि सनहरीलाल को ऐसे ही विदेशी गुणगान नहीं करने देगा, बल्कि मिट्टी-पलीद करके छोड़ेगा।

क्रमश:

( साभार : गर्भनाल)

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