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रस्‍साकसी

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हमें फॉलो करें रस्‍साकसी
- अलका प्रमोद

जन्म : 18 जुलाई 1958 शिक्षा- एम.एस.सी., स्नातकोत्तर डिप्लोमा पत्रकारिता एवं कम्प्यूटर वेब डिजाइन में। लगभग 60 कहानियाँ और लेख प्रकाशित। 'संवर्धन' त्रैमासिक पत्रिका की संपादक। साथ ही 'साहित्य सुधा रत्न', 'साहित्यामृत' सम्मान से सम्मानित।
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सुबह के नौ बज गए थे, पर रामी का कहीं अता-पता न था। ‘आज लगता है फिर नहीं आएग’, सोचते हुए मैं स्‍वयं ही बर्तन साफ करने की सोच रही थी कि क्रींच की तीखी ध्‍वनि के साथ द्वार की घंटी बज उठी और उसके अंदर आने पर, इससे पूर्व कि उसके देर से आने पर मैं कुछ कहती रामी स्‍वयं ही अपनी राम कहानी सुनाने लगी। ‘का बताई दीदी, तोहरे सामने वाली प्रिंसपलनी बहुत बीमार हैं।

आगे-पीछे तो कोई है नहीं, हमही जरा उनके खातिर चाय-दलिया बनावै लाग, अरे मनई-मनई के काम आवत है’ प्रिंसपलनी अर्थात मेरे घर के ठीक सामने रहने वाली अवकाश प्राप्‍त प्रधानाचार्या मिसेज चंदानी। मिसेज चंदानी का नाम आते ही लगभग सत्‍तर वर्षीय वृद्धा का चेहरा सामने आ जाता है जिन्‍हें मैंने अपने इस घर में रहने के छ: वर्षों के अंतराल में संभवत: छ: बार ही देखा होगा। कठोर भाव लिए उनका चेहरा आज भी उनके कड़क प्रधानाचार्या होने की पुष्‍टि करता है।

ऊँची चहारदीवारी, विशालकाय फाटक, लंबे-लंबे वृक्ष और घनी लताओं से घिरा उनका आवास स्‍वयं में किसी रहस्‍यात्‍मक बंगले से कम नहीं लगता। उस पर से करेला नीम चढ़ा है, उनके भेड़िये जैसे आकार-प्रकार के खूँखार कुत्ते जो फाटक के सामने से फेरी वाला भी निकल जाए तो गुर्रा कर अपना आक्रोश व्‍यक्‍त किया करते हैं।

जब मैं पहली बार इस घर में रहने आई तो सामने के मकान में लगी नाम पट्टिका में भूतपूर्व प्रधानाचार्या मिसेज चंदानी पढ़कर ही उनका परिचय प्राप्‍त हुआ था, पर महीनों न तो रामी के अतिरिक्‍त मैंने किसी को उनके घर में जाते देखा, न ही किसी को घर से निकलते। अधिक ताक-झाँक की प्रकृति न होने के कारण और कुछ नई होने के कारण मैंने कभी उस घर में रहने वालों के विषय में अधिक जानने का प्रयास नहीं किया।

वह तो एक दिन मैं अपने पड़ोस की शुभा से बातें कर रही थी कि एक गंभीर मुखम़ुद्रा वाली वृद्धा को रिक्‍शे से उतरकर अंदर जाते देखा। मैं उत्‍सुकतावश मुड़कर उन्‍हें देखने लगी तो शुभा ने मुझे कोहनी मारकर व्‍यंग्‍य से कहा- ‘अरे उधर मत देख बुढ़िया बुरा मान जाएगी’ एक सुशिक्षित वृद्धा के लिए ऐसा संबोधन मुझे फाँस-सा चुभा, पर उनके बारे में जिज्ञासा में उस चुभन को दरकिनार कर मैं शुभा को प्रश्‍नवाचक दृष्‍टि से देखने लगी।

शुभा मेरी जिज्ञासा शांत करते हुए बोली- ‘अरे पता नहीं, यह कैसी रुखी और बद्-दिमाग बुढ़िया है, जिसे मानुष गंध ही नहीं सुहाती। कोई भूला-भटका इसके द्वार पहुँच जाए तो पहले खूँखार कुत्ते ही उसकी राह रोक लेते हैं और कहीं गलती से बाहर मिल गईं तो अपने कुत्तों से भी अधिक खूँखार ऐसे भावों से देखेंगी मानो जाने वाले ने उनके घर जाकर पता नहीं क्‍या छीन लिया हो। फिर शुभा ने बताया कि प्रारंभ में जब वह इस कॉलोनी में आई तो पड़ोसी धर्म के नाते उनसे मिलने जाने का अपराध कर बैठी थी।

जब शुभा ने घंटी बजाई तो दोनों ही कुत्ते फाटक के उस पार पैर रखकर खड़े हो गए और जोर-जोर से भौंक कर उसे वापस जाने का आदेश देने लगे पर कुत्तों की भाषा से अपरिचित शुभा ने पुन: यह सोचकर घंटी बजा दी कि कुत्‍तों की मालकिन आकर इन कुत्तों को हटाएगी तो वह फाटक से भीतर प्रवेश कर पाएगी। उसकी आशा के अनुरूप मालकिन बाहर तो आई पर चेहरे पर नितांत अनिच्‍छा या लगभग उपेक्षा का भाव लिए। मरता क्‍या न करता। शुभा यह तो समझ गई कि उसने यहाँ आकर गलती की है पर मालकिन को बाहर बुलाकर उल्‍टे पाँव लौट जाना उसे अशिष्‍टता लगी।

अत: उसने अपने खिसियाए चेहरे पर सप्रयास मुस्‍कान लाते हुए कहा- ‘नमस्‍ते, मैं आपके सामने वाले घर में रहती हू’, ‘तो?’, मिसेज चंदानी के इस रूखे प्रश्‍न और चेहरे के भाव को देखकर थूक गटकते हुए वह बोली ‘जी पड़ोस के नाते आपसे मिलने आई थी, पर शायद आप व्‍यस्‍त हैं अत: चलती हू’ और यह कहकर वह उल्‍टे पाँव लौट पड़ी, मिसेज चंदानी ने भी उसे रोकने का प्रयास नहीं किया। चार-पाँच पग चलकर उसने एक बार मुड़कर पीछे देखा तो कुछ समय आया कठोर भाव तिरोहित होने लगा था।

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शुभा को ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह अपने कुत्तों को अपना दायित्‍व भली-भाँति निभाने के लिए शाबाशी दे रही हों। वह दिन और आज का दिन शुभा ने उनके घर जाना तो दूर उनसे कभी दृष्‍टि भी नहीं मिलाई। शुभा का यह कटु अनुभव सुनकर मैंने भी कभी उनसे परिचय बढ़ाने का साहस नहीं किया, हाँ मन में उनके उस असामान्‍य व्‍यवहार के प्रति भीगे हुए चूने के समान अनेक प्रश्‍न खुदबुदाते रहते हैं। मैं प्राय: सोचती कि यह ऐसी क्‍यों हैं परोक्ष में कोई तो कारण होगा जो इतनी शिक्षित, प्रधानाचार्या के पद से अवकाश प्राप्‍त महिला समाज के मध्‍य रहकर भी शिष्‍टाचारों को किनारे रख चिकनाई के समान सदा अलग ही रहती हैं। पर उनके शुष्‍क व्‍यवहार के बारे में यदा-कदा सुनी बातें मेरी जिज्ञासा के बुलबुलों को अंदर ही अंदर खुदबुदाने को बाध्‍य करतीं।

बच्‍चे तो उन्‍हें परोक्ष में चंडालिन तक कहते क्‍योंकि सड़क पर क्रिकेट खेलते बच्‍चों की गेंद प्राय: उनके घर की चहारदीवारी फाँदकर उनके घर की बगिया में सेंध लगाने का अपराध कर बैठती। पहले तो बच्‍चों ने गेंद वापस देने की अनुनय-विनय की, पर उत्तर में उन्‍होंने कुत्तों को खोल दिया, जो फाटक के पार से ही बच्‍चों को इतना भयाक्रांत कर देते कि वो बेचारे निराश होकर लौट जाते।

कुछ खेलने की अदम्‍य इच्‍छा और कुछ बाल्‍यावस्‍था का दु:साहस, एक-दो लड़कों ने तो द्वार फाँद कर अपनी संपत्ति वापस लेने का प्रयास भी किया पर अपने तीव्र घ्राणशक्‍ति के चलते उन प्रहरी कुत्तों ने बच्‍चों के प्रयास को असफल ही नहीं बनाया वरन् एक लड़का मिंटू जो ऊँची चहारदीवारी पर लगभग चढ़ ही गया था, कुत्तों की खूँखार गुर्राहट सुनकर ऐसा थर्राया कि सीधे पके आम की तरह धरती पर आ गिरा, जिससे उसके पाँव की हड्डी टूट गई और वह डेढ़ माह तक बिस्‍तर पर पड़ा रहा। अब तो बच्‍चे गेंद उधर चले जाने पर आपस में जेब खर्च जोड़कर नई गेंद लाना ही श्रेयस्‍कर समझते हैं।

आज रामी बता रही थी कि मिसेज चंदानी कुछ खा-पी नहीं पा रही हैं। दर्द से तड़प रही हैं, उनका उठना-बैठना दूभर हो गया है। बस डॉक्‍टर सुबह-शाम आकर सुई लगा जाता है और बेचारी दिन भर एकाकी पड़ी रहती हैं। बस रामी ही उनका काम कर देती है। मुझे उनका हाल और एकाकीपन देखकर उनसे सहानुभूति हो रही थी।

जैसी भी हैं मानवता के नाते मेरा मन कर रहा था कि उनका हाल-चाल पूछ आऊँ, पर कुछ पड़ोसियों की व्‍यंगोक्‍तियों और कुछ उनके खूँखार कुत्तों के डर से जो कुछ ही क्षणों में किसी को भी क्षत-विक्षत करने में सक्षम हैं, मैं उनके घर जाने का साहस नहीं कर पाई। हाँ, मैंने इतना अवश्‍य किया कि रामी को उनकी सेवा के कारण मेरे घर आने में होने वाली देर से अवश्‍य छूट दे दी। भले ही मुझे कुछ कार्य स्‍वयं ही करने पड़ते।

तीन-चार दिन ही बीते होंगे कि रामी पुन: पूर्ववत अपने समय पर उपस्‍थित हो गई। मैंने पूछा ‘तुम्‍हारी प्रिंसपलनी कि तबियत ठीक हो गई क्‍या ?’ मेरा इतना कहना था कि उसको मानो अपने मन की भड़ास निकालने का अवसर मिल गया हो, टेढ़ा मुँह बनाकर बोली, ‘अरे कल की मरती आज मरे, हमें का करै का ह’ और फिर अविरल प्रवाह में उनके लिए अपशब्‍दों की बौछार प्रारंभ कर दी। उसके इस प्रहार से मिसेज चंदानी का तो पता नहीं पर मेरा तन अवश्‍य आहत हो गया। मैंने लगभग उसे डाँटते हुए कहा ‘क्‍या अनाप-शनाप बोले जा रही है।

कल तक तो उनकी इतनी सेवा करती थी और आज उस दु:खी आत्‍मा को कोस कर क्‍यों पाप की भागी बन रही है’ अरे दीदी आपको पता नहीं बुढ़िया बड़ी घाघ है, अरे हम का नहीं कियै ओह के बरै ? ू-मूत तक साफ कियै, तेल लगावा, दलिया बनावा पर ऊ नासुक्री बुढ़िया हमका तो टका नाही दिहिस’ फिर पास आकर धीमे स्‍वर में बोली दीदी तोहका पता है बगल वाले चौबेजी मीठी-मीठी बतिया बनाय के बुढ़िया के मकान अपनै नाम कराय लिहिन’ मुझे सारी कहानी वर्षा के बाद धुले आकाश के समान स्‍पष्‍ट दिखने लगी, मैं समझ गई कि जिसे मैं रोमी की भलमनसाहत समझ रही थी वह कुछ पाने का स्‍वार्थ था। पर मुझे रोमी की बात का विश्‍वास नहीं हुआ।

चौबे परिवार तो मिसेज चंदानी की सर्वाधिक बुराई करता था फिर वह पढ़ी-लिखी महिला अपना सब कुछ उन्‍हें क्‍यों देगी। पर फिर और लोगों से भी ज्ञात हुआ कि आज कल चौबेजी का पूरा घर दिन-रात उन्‍हें घेरे रहता है और उनकी सेवा में जुटा है, उनका बेकार बेटा जिसने दादी की अंतिम इच्छा पूर्ण करने के लिए बिना कमाई के ही विवाह कर लिया था, अपनी पत्‍नी सहित मिसेज चंदानी के घर पर ही डेरा डाले हुए है। रामी की तो उन्‍होंने एक प्रकार से छुट्टी ही कर दी है। बस बर्तन साफ करवाकर उसे चलता कर देती हैं। वह तो रामी ने किसी समय काम के बहाने से उनके मध्‍य होने वाले वार्तालाप से इस रहस्‍य को जान लिया। संभवत: मिसेज चंदानी ने इस असहाय अवस्‍था में डूबते में तिनके का सहारा पाकर यह निर्णय लिया होगा अथवा लेने को विवश हुई होंगी।

दो-तीन दिनों ही में नाटक में नया मोड़ आ गया। मैं सोकर उठी ही थी कि बाहर से लोगों की जोर-जोर से बहस करने की ध्‍वनि सुनकर मैं बाहर आ गई। वहाँ देखा कि मिसेज चंदानी के घर के सामने एक कार खड़ी है और एक सूटेड-बूटेड सज्‍जन चौबेजी से कह रहे हैं, ‘आप कौन होते हैं, मेरी मदर के बारे में कुछ तय करने वाले, पता नहीं इन्‍हें कौन-सी दवा देकर बीमार कर दिया- उनका इलाज मैं किसी अस्‍पताल में कराऊँगा’ चौबेजी का तो पूरा परिवार ताल ठोंक कर लड़ने की मुद्रा में खड़ा था।

उनकी पत्‍नी हाथ नचाकर बोली- ‘रहने दो बड़े आए माँ की चिंता करने वाले, सालों तो इधर झाँका नहीं, अब आखिर समय में जब मकान पर हक की बात आई तो चले आए लाड़ले बेटा बनकर’ वह सज्‍जन क्रोध से लाल-पीले हुए जा रहे थे। जब उनका चौबेजी की पत्‍नी के आगे वश न चला तो अपनी आंग्‍ल भाषा का प्रभाव डालने का प्रयास करते हुए चौबेजी से बोले ‘प्‍लीज आस्‍क यूअर वाइफ टु बिहेव हरसेल्‍फ’ इस पर चौबेजी पत्‍नी बोलीं- ‘बस-बस जादा अंग्रेजी में न टरटीराओ, खबरदार जो अम्‍माजी को यहाँ से ले गए

मैं विस्‍मय विमूढ़ थी, तो क्‍या इनका बेटा भी है- फिर यह यहाँ अकेली क्‍यों रहती हैं। इतने दिनों से बीमार हैं और बेटा आज आया। मैं अपनी संवाददाता रामी की प्रतीक्षा करने लगी। मेरी इस रहस्‍यमय प्रकरण में रुचि बढ़ती जा रही थी। तभी रामी आ गई। घटना के इस नाटकीय मोड़ से वह अति उत्‍साहित थी, वह प्रसन्‍न होकर बोली ‘देखा दीदी, चौबे की सारी चालाकी धरी रह गई’ मैंने कहा ‘पर आज तक तो इनका बेटा दिखा नहीं

इस पर ज्ञात हुआ कि वह इनका सौतेला बेटा है और इन दोनों का कोई संबंध नहीं है। पर इस समय चौबेजी से जली-भुनी रामी को वह देवदूत सा लग रहा था। वह बेटे का पक्ष लेते हुए बोली ‘अरे कछु होय, है तो उनके मरद की औलाद, प्रिंसपलनी के घर जायदाद पर तो उसी का हक बनता है। चौबिआइन खाली अम्‍माजी, अम्‍माजी कहकर ऊकेर हक थोड़े ही हड़प लेइहैं’ मैंने उसे टोक कर पूछा, पर मिसेज चंदानी के क्‍या हाल हैं। ऊ तो बेहोस हैं, उनकर बिटवा बड़े अस्‍पताल ले गया।

‘अरे दीदी ई चौबे तो खूब टाँग अड़ाय रहै पर उनके बिटवा ठहरा पहुँच वाला, थाना कचहरी की धमकी देकर लै गवा है आपन महतारी का’ ‘पर जब उसका इनसे कोई संबंध ही नहीं था तो उसे पता कैसे चला’, ‘अरे अइसन बात कहीं छिपत है का सबय जानत रहै कि चौबे का गुल खिलाय हैं, कोऊ फून कर दियै होई सो सुनकर ऊ दौरे आय’ मैं समझ गई कि यह सब रामी के प्रचार-प्रसार का परिणाम है। मुझे न जाने क्‍यों मिसेज चंदानी की चिंता हो रही थी कि कोई भी कराए, पर उनकी सेवा-सुश्रुषा हो जाए

मिसेज चंदानी के अस्‍पताल जाने के बाद सामने घर विचित्र सुनसान लगने लगा था। उनके कुत्ते उदास से द्वार पर ही बैठे रहते थे। यहाँ तक कि फाटक के पास से निकलने वालों को भौंक भी नहीं रहे थे। संभवत: जिसकी सुरक्षा का दायित्‍व उनके ऊपर था उनके चले जाने पर उन्‍हें भौंकना भी निष्‍प्रयोजन लग रहा था। भले मिसेज चंदानी से मेरा कोई संबंध नहीं था फिर भी मानवता के नाते इस स्‍थिति में स्‍वयं मैं उन्‍हें देखने के लिए अस्‍पताल जाने से खुद को रोक नहीं पाई थी। वहाँ पहुँच कर पता चला कि वे आईसीयू में हैं, मैं वहाँ पहुँची तो मेरे आश्‍चर्य की सीमा नहीं रही। जिन्‍हें मैं नितांत एकाकी समझ रही थी, उनके बेटे के अतिरिक्‍त दो बहनों और भाइयों के परिवार भी थे।

मेरे लिए उनका एकाकी जीवन और भी रहस्‍यमय बन गया। दिन व्‍यतीत होते जा रहे थे, पर अपनी निजी व्‍यस्‍तताओं के पश्‍चात भी कोई वहाँ से जाने को तैयार नहीं था। सभी एक-दूसरे को जाने को कहते। मिसेज चंदानी यथावत बेसुध थीं। काश! वे देख पातीं कि उनके कितने हितैषी हैं। नित्‍य जाते-जाते सबके वार्तालाप से मिसेज चंदानी के अतीत जीवन के कुछ पन्‍ने मेरे हाथ लग गए थे। उनका पूरा नाम पुनीता चंदानी है। वे अपने पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़ी हैं और पिता की अकस्‍मात मृत्‍यु के कारण उन्‍होंने अध्‍यापन करके दोनों भाइयों और बहनों को उनके पैरों पर खड़ा करके उनकी गृहस्‍थी सँवारते-सँवारते उनकी खुद की गृहस्‍थी बसाने की आयु मुठ्ठी से रेत के समान फिसल गई थी।

फिर जब सब भाई-बहन अपनी-अपनी गृहस्‍थी में व्‍यस्‍त हो गए तब शनै:-शनै: वे स्‍वयं को उनके जीवन में अवांछित अनुभव करने लगीं। तभी पुनीता की जीवन रूपी नाव समय के प्रवाह में लक्ष्‍यहीन बहती हुई अपनी मित्र के भाई अधेड़ आयु के विधुर श्री रमेश चंदानी से जा टकराई। अपनों से आहत और एकाकी जीवन यात्रा से थकी पुनीता ने इसी किनारे लगना श्रेयस्‍कर समझा और इस प्रकार वह मिसेज चंदानी बन गईं। यह उनके भाई-बहनों को रास न आया। उन्‍हें समझ न आया कि इस आयु में विवाह करने की क्‍या आवश्‍यकता थी।

यह दुर्भाग्‍य ही था कि मिसेज चंदानी ने उनसे मुँह मोड़ा तो भाग्‍य ने भी उनसे मुँह मोड़ लिया। समय के तीव्र प्रवाह ने उनके किनारे छिन्‍न-भिन्‍न कर दिए। पाँच वर्ष भी न बीते थे कि श्री चंदानी की हृदयाघात से मृत्‍यु हो गई। उनके एकमात्र पुत्र सुजय से वैसे भी उनके विशेष तंतु नहीं जुड़ पाए थे।

श्री चंदानी का घर पूर्व पत्‍नी के नाम ही था, इससे पूर्व कि वह अपने अधिकार का प्रश्‍न उठाए, दूरदर्शी सुजय ने दूसरा घर खरीदने के बहाने से वह घर बेच कर अपने नाम घर खरीद कर पुनीता को एक किनारे कर दिया और इस प्रकार वह अनचाहे कर्तव्‍य और अधिकार में भागीदारी से मुक्‍ति पाईं। वह तो मिसेज चंदनी स्‍वयं समर्थ थीं अत: यह घर खरीद लिया। पर जो भी हो इस समय सभी उनके स्‍वास्‍थ्‍य को लेकर चिंतित थे, उनके कष्‍ट में सब प्रस्‍तुत थे, यही क्‍या कम है ? सभी एक-दूसरे से बढ़कर उनके करीबी बनने का प्रयास कर रहे थे।

मैं अपने विचारों में मग्‍न थी कि आईसीयू से डॉक्‍टर बाहर आए, उन्‍हें देखकर सभी उत्‍सुकता से डॉक्‍टर के समीप सिमट आए। डॉक्‍टर ने गंभीर वाणी में कहा ‘मिसेज चंदानी को तो हमने बचा लिया है, वे कुछ देर में होश में भी आ जाएँगी पर शायद उनके बाएँ तरफ के अंग लकवाग्रस्‍त हो गए हैं’ यह सुनते ही कुछ ही देर में अभी तक स्‍वयं को उनके सबसे अधिक प्रिय सिद्ध करने की होड़ में रस्‍साकशी कर रहे उनके संबंधियों के मध्‍य की रस्‍सी अचानक एक झटके से टूट गई, उन्‍हें अनायास अपने आवश्‍यक कार्य याद आ गए और मिसेज चंदानी के आँख खोलने से पूर्व ही उनका चिर आत्‍मीय एकाकीपन उनके पास सिमट आया था।

साभार- गर्भनाल

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