भले ही नन्ही हों जब तक साँसों में दम रहता जगी रहती आशाएँ दौड़ पड़े आगे निकले पद संचलन ही करें लहरें भी चाहती हैं निर्बाध रास्ता
बिना नाश्ते पानी के अट्ठावन किलोमीटर लंबे और एक हजार चौड़े जलमहल को लाँघने के लिए किस समय निकलती होगी
केंद्रबिंदु से चलकर पूरी न सही आधी दूरी तो प्रतिदिन तय करती होगी जन्म से यात्रा शुरू होकर श्वास अंतिम झील के तट पर
वैसे जब तट पर हो नर्म नर्म बालू स्वत: हो जाती अतिशय सुगम यात्राएँ रोड़े पथ में हो आक्रोश से उछल जाती पारदर्शी क्यों रहेंगी अब करेंगी शोर रास्ता जब बाधित हो तब अतिशय गुस्से में फेन मुँह से निकालेंगी, चलेगी जिस ओर।