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रेखा मैत्र
अब कोई कैसे ये
मुट्ठी भर रिश्ते जिये?
जब अपनी ही जन्मभूमि पर
आततायियों ने अपने ही भाई-बंधुओं को
गोलियों से भून डाला हो
कटे-फटे, अंग-प्रत्यंग
जब शिनाख़्त से बाहर हों
मालूम ही ना हो
किस किस हाथ-पाँव को
किस देह के साथ जलाएँ
या किस लाश के साथ दफनाएँ
तो कैस मैं 'वाजिद अली शाह' बनी
ग़ज़ल लिखती रहूँ?
साभार - गर्भनाल