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समर्थ के आश्रय में

- अमिताभ पांडेय 'शिवार्थ'

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ढूंढता हूं
शब्दों में खोई अपनी कविता को

मूल अर्थ ‍के लिए
संजोये थे शब्द-शब्द मैंने
उन्हीं शब्दों के आड़े-तिरछे स्वरूप में
खोई है कविता मेरी

मैंने सोचा था
भावना के प्रवाह से
सींचूंगा खेत तन के
बुझाऊंगा प्यास मन की
मगर
भावना के प्रवाह में
डूब के बह गई है कविता मेरी

कविता किंतु, मरती नहीं
अर्थ तक, तरती नहीं

समर्थ के आश्रय में
बहती रही, चलती रही
बुनती रही, बनती रही
गढ़ती रही, ढलती रही,
बीज-सम गलती रही

फिर शब्द गौण हो गए
और अर्थ ही बाकी रहा

सम अर्थ में
घुलकर विलीन हो गई
कविता मेरी।

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