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सुपर हैवीवेट के 'सुपर' एलेक्सीव

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ओलिम्पिक खेलों में यूं तो कई बेहतरीन भारोत्तोलक हुए हैं लेकिन इन कइयों में रूस के वैसिली एलेक्सीव निर्विवाद रूप से विश्व के सर्वश्रेष्ठ भारोत्तोलकों में शुमार किए जा सकते हैं।

पोक्रोवो-शिशकिनो, रयाजान में 7 जनवरी 1942 को जन्में इस सोवियत भारोत्तोलक ने म्यूनिख (1972) और मांट्रियल (1976) के ओलिम्पिक खेलों में सुपर हैवीवेट के स्वर्ण पदक जीतकर अमेरिकी जे.डेविस और अपने ही देशवासी एल.झशबोतिनकी की परंपराओं को आगे बढ़ाया था।

डेविस ने 1948 व 52 तथा झाबोतिनकी ने 1964 व 68 के ओलिम्पिक में सुपर हैवीवेट में स्वर्ण जीत रखे थे। पर 1.86 मी.ऊँचे व 337 पौंड वजनी एलेक्सीव के तेवर कुछ अलग प्रकार के ही थे क्योंकि उन्होंने 1970 से 77 के बीच दोनों स्वर्ण पदकों (ओलिम्पिक) के अतिरिक्त विश्व सुपर हैवीवेट में भी शिरकत करते हुए 6 स्वर्ण जीते थे।

इस दौरान एलेक्सीव ने अपने वर्ग का हर खिताब जीता, कभी परास्त नहीं हुए और सौ से अधिक बार उन्होंने विश्व कीर्तिमान तोड़े। जनवरी 1970 में उन्होंने प्रेस, जर्क व कुल भार तीनों में विश्व कीर्तिमान तोड़े। मार्च में वे 600 से अधिक किग्रा कुल भार उठाने वाले विश्व के पहले भारोत्तोलक बने। सितंबर आते-आते उन्होंने जर्क में 500 पौंड से अधिक भार ओहियो की स्पर्धा में उठाकर नया कीर्तिमान स्थापित किया।

म्यूनिख में एलेक्सीव ने बड़े आराम से 30 किग्रा का अंतर रखते हुए सुपर हैवीवेट का स्वर्ण जीत लिया। एलेक्सीव ने प्रेस (235 किग्रा), स्नैच (175 किग्रा), जर्क (230 किग्रा) और कुल भार (640 किग्रा) सभी में नए ओलिम्पिक कीर्तिमान स्थापित किए। म्यूनिख में वे सिर्फ 26 फ्राइड अंडों व स्टीक का नाश्ता करते थे।

मांट्रियल 1976 में एलेक्सीव ने अपनी पिछली सफलता को दोहराया। मांट्रियल में प्रेस वर्ग शामिल नहीं था। उन्होंने स्नैच में 185 किग्रा (1972 से 10 किग्रा अधिक) और जर्क में 255 किग्रा (1972 से 25 किग्रा अधिक) का विश्व कीर्तिमान बनाते हुए स्वर्ण जीता।

गेट्सवर्ग (1978) में एलेक्सीव चोटिल होने के कारण जर्क में 240 किग्रा वजन नहीं उठा सके। इस तरह उन्हें खिताब से हाथ धोना पड़ा। चोट के कारण से ही वे मॉस्को ओलिम्पिक (1980) तक किसी अन्य स्पर्धा में भाग न ले सके।

दुर्भाग्य ने घर के आयोजन में भी एलेक्सीव का पीछा नहीं छोड़ा और ओलिम्पिक से बाहर होना पड़ा। यह कहा जाता है कि प्रत्येक विश्व कीर्तिमान तोड़ने पर सोवियत सरकार उन्हें अच्छा खासा पुरस्कार दिया करती थी।

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