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भारतीय हॉकी से रूबरू नहीं होगा बीजिंग

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नई दिल्ली (भाषा) , गुरुवार, 10 जुलाई 2008 (22:43 IST)
खेलों की सबसे बड़ी जंग में भारत की झोली में पहला पीला तमगा डालने वाली हॉकी टीम ने ओलिम्पिक के इतिहास में देश के लिए कई सुनहरे पन्ने लिखे लेकिन यह विडंबना ही है कि जब भारतीय कुनबा बीजिंग के लिए रवाना होगा तो 80 बरस में पहली बार हॉकी थामे कोई खिलाड़ी नजर नहीं आएगा।

वर्ष 1927 में भारतीय ओलिम्पिक संघ के गठन के बाद पुरुष हॉकी टीम ने पहली बार 1928 एम्सटर्डम ओलिम्पिक खेलों में शिरकत की और हॉलैंड और जर्मनी जैसी दिग्गज टीमों को पछाड़ते हुए देश को खेलों के महाकुंभ में पहली बार स्वर्णिम सफलता दिलाई।

भारत ने यूरोपीय टीमों के दबदबे को समाप्त करके 1928 में ओलिम्पिक में जीत का जो सफर शुरू किया, वह 1960 में ही जाकर थमा। भारत ने इस दौरान लगातार छह स्वर्ण और 30 जीतों का रिकार्ड बनाया जो आज भी कायम है लेकिन दुख की बात है कि यही भारतीय टीम पड़ोसी देश चीन की राजधानी बीजिंग में होने वाले 29वें ओलिम्पिक खेलों में नहीं दिखेगी।

भारतीय हॉकी टीम चिली के सैंटियागो में ओलिम्पिक क्वालीफाइंग टूर्नामेंट के फाइनल में ब्रिटेन के हाथों 2-0 की शिकस्त के साथ खेलों के महासमर के लिए क्वालीफाई करने से चूक गई थी। वर्ष 1928 के बाद से सर्वाधिक आठ स्वर्ण जीतकर गौरवगाथा लिखने वाली हॉकी टीम के लिए पदार्पण के बाद यह पहला मौका था, जब वह इस प्रतिष्ठित टूर्नामेंट में क्वालीफाई करने में नाकाम रही।

एम्सटर्डम में जयपाल सिंह की अगुआई में भारत ने हॉकी के जादूगर ध्यानचंद की तिकड़ी की मदद से फाइनल में हॉलैंड को 3-0 से हराकर भारतीय हॉकी के स्वर्णिम सफर की शुरुआत की। टूर्नामेंट में टीम के दबदबे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसने पाँच मैच खेले और पाँचों में विजयश्री को चूमा। टीम ने इस दौरान ध्यानचंद के 14 गोल सहित 29 गोल दागे जबकि विरोधी टीम एक बार भी भारत के डिफेंस को नहीं भेद सकी। ध्यानचंद टूर्नामेंट के शीर्ष स्कोरर भी रहे।

ओलिम्पिक में पहली बार शिरकत कर रही नई-नवेली टीम की खिताबी जीत से हैरान हॉलैंड के एक पत्रकार ने लिखा ऐसा लग रहा था मानो भारतीय गेंद ने गुरुत्वाकर्षण के नियम को नजरअंदाज कर दिया हो। टीम के खिलाड़ी गेंद की तरफ देखते थे और यह हवा में उठ जाती थी और फिर हवा में ही रुकी रहती थी। यह हॉकी का खेल नहीं बचा था। यह कलाबाजी बन गया था। यह बेजोड़ था।

भारत ने इसके बाद लगातार छह ओलिंपिक स्वर्ण अपनी झोली में डाले। इंग्लैंड से हॉकी सीखने वाले भारत ने अपने कौशल और तेजी के बूते ओलिंपिक में कई ऐसे रिकार्डों की नींव रखी जिसे तोड़ना तो दूर उसकी बराबरी करना भी टीमों के लिए आसान नहीं होगा।

भारत ने 1928 से 1956 के बीच लगातार छह स्वर्ण जीतने के दौरान 178 गोल दागे जबकि विरोधी टीमें मात्र सात गोल ही कर सकी यानी हर टूर्नामेंट में लगभग एक गोल जबकि भारत ने इस दौरान हर मैच में सात से अधिक की औसत से गोल दागे। टीम ने इस दौरान सभी 24 मैचों में जीत हासिल की।

भारत के दबदबे की बानगी उसके अन्य रिकार्डों से भी झलकती है जिसमें ओलिंपिक फाइनल की सबसे बड़ी जीत भी उसके नाम दर्ज है। भारत ने 1936 बर्लिन ओलिंपिक के फाइनल में मेजबान जर्मनी को 8-1 से रौंदा जो आज भी फाइनल की सबसे बड़ी जीत है।

पूल मैच में सबसे बड़ी जीत का रिकार्ड भी भारतीय टीम के नाम है जिसने 1932 लास एंजिल्स ओलिंपिक में मेजबान अमेरिका को 24.1 के विशाल अंतर से रौंदा था। भारत के लिए ध्यानचंद ने आठ गोल दागे जबकि उनके भाई रूपसिंह ने विरोधी टीम की धज्जियाँ उड़ाते हुए 16 बार गेंद को गोल के अंदर भेजा।

ओलिंपिक में भारत का स्वर्णिम सफर 1980 में मास्को तक चला जब उसने खेलों की इस सबसे बड़ी जंग में आखिरी बार पीला तमगा जीता। 1928 से 1956 का सुनहरा दौर देखने वाले भारत का ओलिंपिक हॉकी में यह अंतिम पदक था। भारतीय टीम इसके बाद 24 बरस तक ओलिंपिक में पदक से महरूम रही।

भारत की दुर्दशा का अंदाजा इस बात से लगता है कि सफलता की इबारतें लिखने वाली टीम 2004 सिडनी ओलिंपिक में सातवें स्थान पर रही जबकि 2008 बीजिंग ओलिंपिक के लिए तो वह क्वालीफाई भी नहीं कर सकी।

पुरुषों के अलावा भारत की महिला हॉकी टीम भी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी और बीजिंग के लिए क्वालीफाई करने में नाकाम रही।

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