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लंबा सफर तय किया है सुशील कुमार ने

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नई दिल्ली , रविवार, 12 अगस्त 2012 (22:14 IST)
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डीटीसी के बस कंडक्टर के बेटे से देश के खेलों के इतिहास में लगातार दो ओलिंपिक में व्यक्तिगत पदक जीतने वाले पहले भारतीय बने सुशील कुमार ने अपने जीवन में लंबा सफर तय किया है।

राजधानी के बाहरी हिस्से में बसे एक गांव बापरोला के रहने वाले सुशील ने आज अपना नाम इतिहास में दर्ज करा लिया जब उन्होंने लंदन ओलिंपिक की कुश्ती प्रतियोगिता के 66 किग्रा फ्रीस्टाइल वर्ग में रजत पदक जीता। इससे पूर्व चार साल पहले उन्होंेने बीजिंग खेलों में कांस्य पदक जीता था।

स्वर्ण पदक मुकाबले में जापान के पहलवान तत्सुहीरो योनेमित्सु के हाथों 1-3 की शिकस्त से पहले सुशील अजेय नजर आ रहे थे। यह 29 वर्षीय पहलवान हालांकि रजत पदक के बावजूद अपना नाम भारतीय खेल के इतिहास में सुनहरे अक्षरों से लिखवाने में सफल रहा।

बीजिंग में कांस्य पदक ने जहां देश को सुशील की प्रतिभा से अवगत कराया था वहीं लंदन में रजत पदक ने साबित कर दिया कि वह सर्वश्रेष्ठ पहलवानों में से एक हैं। बीजिंग में कांस्य पदक जीतकर सुशील ने अपने ‘धोबी पछाड़’ से पहलवानी और पहलवानों का सम्मान बढ़ा दिया।

सुशील से ही प्रेरित होकर उनका चचेरा भाई संदीप कुश्ती से जुड़ा लेकिन उसे खेल छोड़ना पड़ा क्योंकि उनका परिवार इस एक पहलवान का खर्चा उठा सकता था और इसके लिए सुशील को चुना गया। सुशील के परिवार को हालांकि अब अपने इस फैसले पर खेद नहीं होगा।

ओलिंपिक में रजत और कांस्य पदक के अलावा विश्व चैम्पियनशिप और राष्ट्रमंडल खेलों के स्वर्ण पदक के साथ सुशील सिर्फ अपने परिवार की ही नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों की उम्मीदों पर भी खरे उतरे।

छत्रसाल स्टेडियम के अखाड़े से लेकर ओलिंपिक में दो बार बीजिंग और लंदन में पदक हासिल करने वाले सुशील ने साबित कर दिया कि देश के गांवों में अब भी चैम्पियन तैयार होते हैं।

सुशील ने सबसे पहले 1998 में पोलैंड में विश्व कैडेट खेलों के साथ सुखियां बटोरी। उन्होंने वर्ष 2000 में एशियाई जूनियर कुश्ती चैम्पियनशिप भी जीती और उन्हें 2007 में अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

बीजिंग खेलों में कांस्य पदक के साथ सुशील रातों-रात पूरे देश के नायक बन गए और उन्हें इस बार लंदन खेलों में भारतीय दल का ध्वजवाहक बनने का मौका भी दिया गया। (भाषा)

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