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ऑस्कर और हिन्दी सिनेमा

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समय ताम्रकर

IFM

ऑस्कर अवॉर्ड को लेकर भारतीय फिल्मकारों और दर्शकों में जरूरत से ज्यादा उत्सुकता हर वर्ष देखी जाती है, लेकिन ऑस्कर अवॉर्ड से नवाजी गई फिल्मों के कथानक पर कभी ध्यान देने की जरूरत हमने नहीं समझी।

ऑस्कर में उन फिल्मों को अवॉर्ड दिया जाता रहा है, जिसमें यूनिवर्सल अपील होती है। जिनके कथानक कभी आउटडेटेट नहीं होते। यूँ तो भारत से हर वर्ष ऑस्कर के लिए फिल्में भेजी जाती हैं, लेकिन बात करते हैं उन फिल्मों की, जो अंतिम दौर तक पहुँचीं। भारत की ओर से सबसे पहले मेहबूब खान की फिल्म 'मदर इण्डिया' (1957) विदेशी भाषा की अंतिम पाँच फिल्मों में नामांकित हुई थी।

हॉलीवुड के शोमैन फिल्मकार सिसिल बी. डिमिल ने मदर इण्डिया देखने के बाद उसे ऑस्कर में भेजने की सलाह मेहबूब को दी थी। मदर इण्डिया का दो घंटे का संस्करण भी भेजा गया था मगर मदर इण्डिया आखिरी दौड़ में इसलिए पिछड़ गई कि इसका कथानक जूरी को बेतुका लगा।

जब साहूकार फिल्म की नायिका को परवरिश करने का ऑफर देता है, तो वह ठुकरा देती है। पश्चिमी नजरिए से उसे साहूकार की बात मान लेना चाहिए थी। भारतीय संस्कृति एवं जीवन मूल्यों की दृष्टि से वह अपनी जगह पर सही थी क्योंकि उसका पति लापता था। उसे विश्वासभरा इंतजार था कि एक न एक दिन उसका पति लौटेगा जरूर। हमारे देश में पतिव्रता को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है इसलिए ऑस्कर नहीं मिला

दूसरी बार मीरा नायर की फिल्म ‘सलाम बॉम्ब’ ऑस्कर की दौड़ में शामिल हुई थी। स्ट्रीट चिल्ड्रन्स पर आधारित यह फिल्म किसी भी विदेशी फिल्म से कमजोर नहीं थी। इसके बावजूद जूरी ने इसे अवॉर्ड के योग्य नहीं समझा।

तीसरी बार आमिर खान की ‘लगा’ को लेकर तो इतना जबरदस्त माहौल बना कि लगा कि हर हाल में इसे ऑस्कर मिलकर रहेगा। आमिर खान अपनी टीम के साथ अमेरिका में हफ्तों डेरा डालकर पड़ रहे। एक-एक जूरी की खोज कर उसे ‘लगा’ दिखाई गई। करोड़ों रुपया पानी की तरह प्रचार-प्रसार पर बहाया गया। संभवत: लगान को इसलिए ऑस्कर के योग्य नहीं माना गया कि इसमें गोरे (अँग्रेज) लोगों की हार थी और काले (भारतीय) लोगों की जीत थी

स्लमडॉग मिलियनेयर को ढेर सारे अवॉर्ड मिल गए, तो उसे ऑस्कर मिलने के कयास लगाए जा रहे थे। इन कयासों को सफलता भी मिल गई और फिल्म ने आठ पुरस्कारों पर फतह हासिल कर ली। इस फिल्म को विदेशियों ने बनाया है। इसकी भारत में सिर्फ शूटिंग हुई है। फिर भी बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना जैसी हालत हमारी हो रही है

रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गाँध’ को कई अवॉर्ड मिले थे, लेकिन इसमें भारतीयों का योगदान ज्यादा नहीं था। ये आश्चर्य की बात है कि राष्ट्रपिता गाँधी पर कोई भारतीय फिल्मकार ने फिल्म बनाने की हिम्मत नहीं जुटाई, लेकिन एक विदेशी ने यह कर दिखाया। ‘गाँधी' में कास्ट्यूम डिजाइनिंग के लिए भानु अथैया को ऑस्कर मिला है। इसके अलावा 1992 में विश्व सिनेमा में अभूतपूर्व योगदान के लिए सत्यजीत रे को मानद ऑस्कर अवॉर्ड से अलंकृत किया गया था।

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