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ओशो वाणी : सेक्स, सूर्य और योग का संगम

हमें फॉलो करें ओशो वाणी : सेक्स, सूर्य और योग का संगम

ओशो

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'सूर्य पर संयम संपन्न करने से संपूर्ण सौर-ज्ञान की उपलब्धि होती है। यह सूत्र थोड़ा जटिल है- अपने आप में यह सूत्र जटिल नहीं है, किंतु व्याख्या करने वालों के कारण यह सूत्र जटिल हो गया है।

पंतजलि की व्याख्या करने वाले सभी व्याख्याकार इस सूत्र के विषय में ऐसी व्याख्या करते हैं, जैसे पंतजलि किसी बाहर के सूर्य की बात कर रहे हों। पंतजलि बाह्य सूर्य की बात नहीं कर रहे हैं; पंतजलि उसकी बात कर ही नहीं सकते।

पंतजलि कोई ज्योतिषी तो है नहीं, और उन्हें ज्योतिष में कोई रुचि भी नहीं है। उनकी रुचि मनुष्य में है। उनकी रुचि मनुष्य की चेतना का नक्शा तैयार करने में है। और सूर्य मनुष्य से बाहर नहीं है।

योग की भाषा में मनुष्य एक लघु ब्रह्मांड है। सूक्ष्म ढंग से मनुष्य एक छोटा सा ब्रह्मांड है, मनुष्य एक छोटे से अस्तित्व में सघन रूप से समाया हुआ है। यह जो ब्रह्मांड है, यह जो संपूर्ण अस्तित्व है, यह और कुछ नहीं मनुष्य का विस्तार ही है। यह योग की भाषा है : लघु ब्रह्मांड व संपूर्ण ब्रह्मांड । जो कुछ बाहर अस्तित्व रखता है, ठीक वही मनुष्य के भीतर भी अस्तित्व रखता है।

बाहर के सूर्य की भाँति मनुष्य के भीतर भी सूर्य छिपा हुआ है; बाहर के चाँद की ही भाँति मनुष्य के भीतर भी चाँद छिपा हुआ है। और पंतजलि का रस इसी में है कि वे अंतर्जगत के आंतरिक व्यक्तित्व का संपूर्ण भूगोल हमें दे देना चाहते हैं। इसलिए जब वे कहते हैं कि - 'भुवन ज्ञानम्‌ सूर्ये संयमात।' - सूर्य पर संयम संपन्न करने से सौर ज्ञान की उपलब्धि होती है।' तो उनका संकेत उस सूर्य की ओर नहीं है जो बाहर है। उनका मतलब उस सूर्य से है जो हमारे भीतर है।

हमारे भीतर सूर्य कहाँ है? हमारे अंतस के सौर-तंत्र का केंद्र कहा है? वह केंद्र ठीक प्रजनन-तंत्र की गहनता में छिपा हुआ है। इसीलिए कामवासना में एक प्रकार की ऊष्णता, एक प्रकार की गर्मी होती है। जानवरों के लिए कहा जाता है कि जब भी कोई स्त्री-पशु गर्भाधान के लिए तैयार होती है, तो हम कहते हैं कि - शी इज़ इन हीट। यह मुहावरा एकदम ठीक है।

कामवासना का केंद्र सूर्य होता है। इसीलिए तो कामवासना व्यक्ति को इतना ऊष्ण और उत्तेजित कर देती है। जब कोई व्यक्ति कामवासना में उतरता है तो वह उत्तप्त से उत्तप्त होता चला जाता है। व्यक्ति कामवासना के प्रवाह में एक तरह से ज्वर-ग्रस्त हो जाता है, पसीने से एकदम तर-बतर हो जाता है, उसकी श्वास भी अलग ढंग से चलने लगती है। और उसके बाद व्यक्ति थककर सो जाता है।

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जब व्यक्ति कामवासना से थक जाता है तो तुरंत भीतर चंद्र ऊर्जा सक्रिय हो जाती है। जब सूर्य छिप जाता है तब चंद्र का उदय होता है। इसीलिए तो काम-क्रीड़ा के तुरंत बाद व्यक्ति को नींद आने लगती है। सूर्य ऊर्जा का काम समाप्त हो चुका, अब चंद्र ऊर्जा का कार्य प्रारंभ होता है।

भीतर की सूर्य ऊर्जा काम-केंद्र है। उस सूर्य ऊर्जा पर संयम केंद्रित करने से, व्यक्ति भीतर के संपूर्ण सौर-तंत्र को जान ले सकता है। काम-केंद्र पर संयम करने से व्यक्ति काम के पार जाने में सक्षम हो जाता है। काम-केंद्र के सभी रहस्यों को जान सकता है। लेकिन बाहर के सूर्य के साथ उसका कोई भी संबंध नहीं है।

लेकिन अगर कोई व्यक्ति भीतर के सूर्य को जान लेता है तो उसके प्रतिबिंब से वह बाहर के सूर्य को भी जान सकता है। सूर्य इस अस्तित्व के सौर-मंडल का काम-केंद्र है। इसी कारण जिसमें भी जीवन है, प्राण है, उसको सूर्य की रोशनी, सूर्य की गर्मी को आवश्यकता है। जैसे कि वृक्ष अधिक से अधिक ऊपर जाना चाहते हैं।

किसी अन्य देश की अपेक्षा अफ्रीका में वृक्ष सबसे अधिक ऊँचे हैं। कारण अफ्रीका के जंगल इतने घने हैं और इस कारण वृक्षों में वापस में इतनी अधिक प्रतियोगिता है कि अगर वृक्ष ऊपर नहीं उठेगा तो सूर्य की किरणों तक पहुँच ही नहीं पाएगा, उसे सूर्य की रोशनी मिलेगी ही नहीं। और अगर सूर्य की रोशनी वृक्ष को नहीं मिलेगी तो वह मर जाएगा। इस तरह से सूर्य वृक्ष को उपलब्ध न होगा और वृक्ष सूर्य को उपलब्ध न होगा, वृक्ष को सूर्य की जीवन ऊर्जा मिल ही न पाएगी।

जैसे सूर्य जीवन है; वैसे ही कामवासना भी जीवन है। इस पृथ्वी पर जीवन सूर्य से ही है, और ठीक इसी तरह से कामवासना से ही जीवन जन्म लेता है- सभी प्रकार के जीवन का जन्म काम से ही होता है।

अफ्रीका में वृक्ष अधिक से अधिक ऊँचे जाना चाहते हैं, ताकि वे सूर्य को उपलब्ध हो सकें और सूर्य उन्हें उपलब्ध हो सके। इन वृक्षों को ही देखो। जिस तरह से वृक्ष इस ओर हैं- यह पाइन के वृक्ष, ठीक वैसे ही वृक्ष दूसरी ओर भी हैं- और उस तरफ के वृक्ष छोटे ही रह गए हैं। इस तरह के वृक्ष ऊपर छोटे ही रह गए हैं। इस तरह के वृक्ष ऊपर ऊपर बढ़ते ही चले जा रहे हैं। क्योंकि इस ओर सूर्य की किरणें अधिक पहुँच रही हैं, दूसरी ओर सूर्य की किरणें अधिक नहीं पहुँच पा रही हैं।

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काम भीतर का सूर्य है, और सूर्य सौर-मंडल का काम-केंद्र है। भीतर के सूर्य के प्रतिबिंब के माध्यम से व्यक्ति बाहर के सौर-तंत्र का ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है, लेकिन बुनियादी बात तो आंतरिक सौर-तंत्र को समझने की है।

इसलिए ध्यान रहे, मेरा जोर इसी बात पर रहेगा कि पतंजलि आंतरिक भूमि के मानचित्र ही बना रहे हैं। और निस्संदेह यह केवल सूर्य से ही प्रारंभ हो सकता है, क्योंकि सूर्य हमारा केंद्र है। सूर्य लक्ष्य नहीं है, बल्कि केंद्र है। परम नहीं है, फिर भी केंद्र तो है। हमको उससे भी ऊपर उठना है, उससे भी आगे निकलना है, फिर भी यह केवल प्रारंभ ही है। यह अंतिम चरण नहीं है, यह प्रारंभिक चरण ही है। यह ओमेगा नहीं है, अल्फा है।

जब पतंजलि हमें बताते हैं कि संयम को उपलब्ध कैसे होना; करुणा में, प्रेम में व मैत्री में कैसे उतरना; करुणावान कैसे होना, प्रेमपूर्ण होने की क्षमता कैसे अर्जित करनी; तब वे आंतरिक जगत में पहुँच जाते हैं। पतंजलि की पहुँच अंतर-अवस्था के पूरे वैज्ञानिक विवरण तक है।

'सूर्य पर संयम संपन्न करने से, संपूर्ण सौर-ज्ञान की उपलब्धि होती है।'

इस पृथ्वी के लोगों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है, सूर्य-व्यक्ति और चंद्र-व्यक्ति, या हम उन्हें यांग और यिन भी कह सकते हैं। सूर्य पुरुष का गुण है; स्त्री चंद्र का गुण है। सूर्य आक्रामक होता है, सूर्य सकारात्मक है; चंद्र ग्रहणशील होता है, निष्क्रिय होता है।

सारे जगत के लोगों को सूर्य और चंद्र इन दो रूपों में विभक्त किया जा सकता है। और हम अपने शरीर को भी सूर्य और चंद्र में विभक्त कर सकते हैं; योग ने इसे इसी भाँति विभक्त किया है।

योग ने तो शरीर को इतने छोटे-छोटे रूपों में विभक्त किया है कि श्वास तक को भी बाँट दिया है। एक नासापुट में सूर्यगत श्वास है, तो दूसरे में चंद्रगता वास है जब व्यक्ति क्रोधित होता है, तब वह सूर्य के नासापुट से श्वास लेता है। और अगर शांत होना चाहता है तो उसे चंद्र नासापुट से श्वास लेनी होगी।

योग में तो संपूर्ण शरीर को ही विभक्त कर दिया गया है : मन का एक हिस्सा पुरुष है, मन का दूसरा हिस्सा स्त्री है। और व्यक्ति को सूर्य से चंद्र की ओर बढ़ना है, और अंत में दोनों के भी पार जाना है, दोनों का अतिक्रमण करना है।

साभार : पतंजलि : योग-सूत्र भाग चार

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