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कृष्ण आज के लिए सार्थक

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हमें फॉलो करें ओशो जन्माष्टमी जन्मष्टमी कृष्ण

ओशो

आने वाले भविष्य में पृथ्वी पर दु:ख कम हो जाएँगे, सुख बढ़ जाएँगे और पहली बार पृथ्वी पर त्यागवादी व्यक्तियों की स्वीकृति मुश्किल हो जाएगी। दु:खी समाज को स्वीकार कर सकता है, सुखी समाज त्याग को स्वीकार नहीं कर सकता।

दु:खी समाज में त्याग, संन्यास, रिनसिन्सएशन; समाज को, जीवन को छोड़कर भाग जाना अर्थपूर्ण हो सकता है, सुखी समाज में अर्थपूर्ण नहीं हो सकता, क्योंकि दु:खी समाज में कोई कह सकता है, सिवाय दु:ख के जीवन में क्या है, हम छोड़कर जाते हैं। सुखी समाज में यह नहीं कहा जा सकता कि जीवन में सिवाय दु:ख के क्या है। अर्थहीन हो जाएगी यह बात।

इसलिए त्यागवादी धर्म की कोई बात भविष्य के लिए सार्थक नहीं है। विज्ञान उन सारे दु:खों को अलग कर देगा, जो जिंदगी में दु:ख मालूम पड़ते थे। बुद्ध ने कहा है- जन्म दु:ख है, जीवन दु:ख है, जरा दु:ख है, मृत्यु दु:ख है, ये सब दु:ख हैं।

दु:ख अब मिटाए जा सकेंगे। जन्म दु:ख नहीं होगा- न माँ के लिए, न बेटे के लिए। जीवन दु:ख नहीं होगा, बीमारियाँ काटी जा सकेंगी। जरा नहीं होंगी और बुढ़ापे से आदमी को जल्दी बचा लिया जा सकेगा और जीवन को भी लंबा किया जा सकता है। इतना लंबा किया जा सकता है कि अब विचारणीय यह नहीं होगा कि आदमी क्यों मर जाता है, विचारणीय यह होगा कि आदमी इतना लंबा क्यों जीए?

यह बहुत निकट भविष्य में सब हो जाने वाला है। उस दिन बुद्ध का वचन- जन्म दु:ख है, जरा दु:ख है, जीवन दु:ख है, मृत्यु दु:ख है, बहुत समझना मुश्किल हो जाएगा। उस दिन कृष्ण की बाँसुरी सार्थक हो सकेगी।

उस दिन कृष्ण का गीत और कृष्ण का नृत्य सार्थक हो सकेगा। उस दिन जीवन सुख है, यह चारों ओर नाच उठेगी घटना। जीवन सुख है, इसके फूल चारों ओर खिल जाएँगे। इन फूलों के बीच में नग्न खड़े हुए महावीर का संदर्भ खो जाता है।

इन फूलों के बीच में जीवन के प्रति पीठ करके जाने वाले व्यक्तित्व का अर्थ खो जाता है। इन फूलों के बीच में तो जो नाच सकेगा वही सार्थक हो सकता है। भविष्य में दु:ख कम होता जाएगा और सुख बढ़ता जाएगा, इसलिए मैं सोचता हूँ कि कृष्ण की उपयोगिता रोज-रोज बढ़ती जाने वाली है।

अभी तक हम सोच ही नहीं सकते कि धार्मिक आदमी के होंठों पर बाँसुरी कैसे है। अभी तक हम सोच नहीं सकते हैं कि धार्मिक आदमी मोर का पंख लगाकर नाच कैसे रहा है। धार्मिक आदमी प्रेम कैसे कर सकता है, गीत कैसे गा सकता है।

धार्मिक आदमी का हमारे मन में खयाल ही यह है कि जो जीवन को छोड़ रहा है, त्याग रहा है, उसके होंठ से गीत नहीं उठ सकते, उसके होंठ से दु:ख की आह उठ सकती है। उसके होंठों पर बाँसुरी नहीं हो सकती है। यह असंभव है, इसलिए कृष्ण को समझना अतीत को बहुत ही असंभव हुआ। कृष्ण को समझा नहीं जा सकता, इसलिए कृष्ण बहुत ही बेमानी, अतीत के संदर्भ में बहुत एब्सर्ड, असंगत थे।

भविष्य के संदर्भ में कृष्ण रोज संगत होते चले जाएँगे। और ऐसा धर्म पृथ्वी पर अब शीघ्र ही पैदा हो जाएगा, जो नाच सकता है, गा सकता है, खुश हो सकता है। अतीत का समस्त धर्म रोता हुआ, उदास, हारा हुआ, थका हुआ, पलायनवादी, एस्केपिस्ट है। भविष्य का धर्म जीवन को, जीवन के रस को स्वीकार करने वाला, आनंद से, अनुग्रह से नाचने वाला, हँसने वाला, धर्म होने वाला है।

धर्म को हम आँसुओं से जोड़ते हैं, बाँसुरियों से नहीं। शायद ही हमने कभी कोई ऐसा आदमी देखा हो जो कि इसलिए संन्यासी हो गया हो कि जीवन में बहुत आनंद है। हाँ, किसी की पत्नी मर गई है और जीवन दु:ख हो गया है और वह संन्यासी हो गया। कोई उदास है, दु:खी है, पीड़ित है, और संन्यासी हो गया है। दु:ख से संन्यास निकला है, लेकिन आनंद से? आनंद से संन्यास नहीं निकला। कृष्ण भी मेरे लिए एक ही व्यक्ति हैं, जो आनंद से संन्यासी हैं।

निश्चित ही आनंद से जो संन्यासी है, वह दु:ख वाले संन्यासी से आमूल रूप से भिन्न होगा। जैसे मैं कह रहा हूँ कि भविष्य का धर्म आनंद का होगा, वैसे ही मैं यह भी कहता हूँ कि भविष्य का संन्यासी आनंद से संन्यासी होगा। इसलिए नहीं कि एक परिवार दु:ख दे रहा था, इसलिए एक व्यक्ति छोड़कर संन्यासी हो गया, बल्कि एक परिवार उसके आनंद के लिए बहुत छोटा पड़ता था। पूरी पृथ्वी को परिवार बनाने के लिए संन्यासी हो गया।

इसलिए नहीं कि एक प्रेम जीवन में बंधन बन गया था, इसलिए कोई प्रेम को छोड़कर संन्यासी हो गया, बल्कि इसलिए कि एक प्रेम इतने आनंद के लिए बहुत छोटा था, सारी पृथ्वी का प्रेम जरूरी था, इसलिए कोई संन्यासी हो गया। जीवन की स्वीकृति और जीवन के आनंद और जीवन के रस से निकले हुए संन्यास को जो समझ पाएगा, वह कृष्ण को भी समझ पा सकता है।

कृष्ण स्मृति से साभार/सौजन्य ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन

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